मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

एक और जेपीसी

                          देश में जिस तरह से किसी बड़े मामले के सामने आने पर संसद में केवल एक ही बात पर हंगामा होता रहता है कि पूरे मामले की जांच एक संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) द्वारा कराई जाए उससे आज तक किसी भी मुद्दे का कोई समाधान निकलता नहीं दिखाई दिया है. यह सही है कि देश के संविधान ने संसद को सर्वोच्च माना है पर क्या आज के समय में सांसदों के आचरण के कारण संसद को वह स्थान जनता की नज़रों में मिल पा रहा है जो उसे आज़ादी के बाद कई दशकों तक मिला हुआ था ? आज जेपीसी का मुद्दा मसले की तह पहुँचने के स्थान पर सरकार को सदन में घेरने का एक हथियार सा बना हुआ है पर इस बार शायद पहल बार सरकार ने किसी मामले पर जेपीसी बनाने का प्रस्ताव रखा पर उस पर विपक्ष द्वारा बहिर्गमन किया गया. आख़िर क्या कारण था कि वही सांसद जब अन्य मुद्दों पर समिति की मांग करते समय सारी संसदीय मर्यादाओं को तक पर रखा दिया करते थे आख़िर इस मसले पर समिति के गठन के सरकारी प्रस्ताव के विरोध में क्यों बहिर्गमन कर गए ?
                         आज संसद में सांसदों का जो भी आचरण चल रहा है वह पूरे देश के साथ दुनिया को भी पता है पर क्या सदन चलाने में क्या सरकार की ही पूरी ज़िम्मेदारी बनती है ? यह सही है कि संसदीय कार्य मंत्रालय के पास यह अधिकार होता है कि वह विपक्ष के साथ मिलकर विभिन्न मुद्दों पर पहले से ही समन्वय स्थापित करके सदन को सुचारू रूप से चलाने का काम करे पर उसके साथ ही विपक्ष पर भी सदन चलाने की उतनी ही ज़िम्मेदारी संविधान द्वारा डाली गई है. यदि आज तक गठित हुई इस समितियों के कुल फल पर विचार किया जाए तो यह समझ ही आ जाएगा कि इनका गठन भी एक तरह से सरकार पर दबाव बनाने के लिए ही किया जाता है. यदि अगस्ता वेस्टलैंड मसले पर सरकार के शुरू से ही दिखाए जा रहे रुख़ पर विचार किया जाए तो घोटाले की सम्भावना का पता लगते ही नियमों के तहत सरकार ने कम्पनी को पूरा ब्यौरा देने के लिए समय दिया है और इसके अतिरिक्त खरीद समझौते की पारदर्शिता नीति के कारण कुछ भी घोटाला मिलने पर पूरा सौदा रद्द किये जाने के बारे में स्पष्ट रूप से कह भी दिया है.
                         इस मुद्दे पर सरकार द्वारा जिस तरह से तेज़ी अभी तक जो क़दम उठाये गए हैं उनमें उसकी कोई लापरवाही नहीं दिखाई देती है फिर भी सरकार को सदन में घेरने के लिए विपक्ष द्वारा जो हथकंडे पनाये जा रहे हैं उनका क्या मतलब बनता है ? यदि सरकार इस मुद्दे पर जेपीसी की मांग को स्वीकार करने में देर लगाती या आनाकानी करती तो विपक्ष द्वारा बजट पेश किये जाने में बाधा डाली जा सकती था इसलिए सरकार ने इस मुद्दे पर किसी भी तरह की जांच के लिए खुद को तैयार रखकर पहली बार विपक्ष के हाथों से सरे हथियार छीन ही रखे हैं और जब तक एंटोनी के पास रक्षा मंत्रालय है तब तक उन्हें जानने वाला कोई भी व्यक्ति जांच में किसी भी तरह की गड़बड़ी करने की हिम्मत नहीं दिखा पायेगा. एंटोनी का अभी तक का इस मामले में बहुत ही साफ़ सुथरा कैरियर रहा है और उन पर वित्तीय अनियमितता का आरोप लगाना आसान काम नहीं है. उनकी स्पष्टवादिता का इसी से पता चलता है कि उन्होंने मामले के सामने आते ही ख़ुद रक्षा मंत्रालय की तरफ़ से ही सीबीआई द्वारा जांच कराने को प्राथमिकता दी थी. अच्छा हो कि इस तरह के मुद्दों को साथ मिलकर निपटा जाए और किसी भी तरह की अनावश्यक राजनीति से भी बचा जाए जिससे आने वाले समय के लिए वैश्विक रक्षा उत्पाद कम्पनियों को संदेश भी जा सके कि अब भारत को इस तरह के मसलों में नहीं उलझाया जा सकता है.
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