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बुधवार, 17 अप्रैल 2013

राष्ट्रीय सम्मान और राजनीति

                                        देश में भ्रष्टाचार की वर्तमान स्थिति से दुखी अन्ना हजारे ने जिस तरह से देहरादून में एक सभा में कहा कि वे इसी मुद्दे पर पद्म श्री सरकार को लौटा चुके हैं और अब वे पद्म भूषण की उपाधि भी लौटा देंगें. देखा जाए तो आम जनता के मन में इस सम्मान पाए व्यक्तियों के लिए आज भी बहुत सम्मान है पर जिस तरह से पिछले कुछ दशकों में इनमें से अधिकांश सम्मान भी केवल राजनैतिक कारणों से ही चयनित अपने प्रिय लोगों को बांटने की सरकारी परंपरा शुरू हो चुकी है उस स्थिति में अब यह नहीं कहा जा सकता है कि इन सम्मानों का अब कितना महत्व रह गया है फिर भी आज इस सम्मान को पाने वालों के लिए यह गर्व का विषय तो होता ही है. जब अन्ना जैसे समाजसेवी इन सम्मानों को इस तरह से दुखी होकर वापस करने के बारे में सोचते हैं तो उससे यही पता चलता है कि देश में भ्रष्टाचार कितना बड़ा मुद्दा है पर हमारे नेताओं को यह दिखाई ही नहीं देता है और वे इसे कोई मुद्दा मानते ही नहीं हैं जबकि आज इसने पूरी तरह से देश में चक्का जाम जैसी स्थिति उत्पन्न कर रखी है.
                                       सम्मान देने लायक लोगों को खोजकर उनकी सेवाओं का आंकलन करने के बाद उनके प्रति देश के राजनैतिक तंत्र द्वारा जिस तरह से ये उपाधियाँ सम्मान के लिए दी जाती हैं उनमें इतने बड़े स्तर पर दबाव की राजनीति किया जाना किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता है पर जब अन्ना जैसे व्यक्ति को इतना बड़ा क़दम उठाने की आवश्यकता दोबारा पड़ रही है तो इससे यही पता चलता है कि देश में आज हालात कितने बिगड़ चुके हैं ? सबसे दुःख की बात यह है कि किसी भी दल द्वारा पूरे मन से अन्ना या किसी अन्य भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन का समर्थन नहीं किया जा रहा है जो कि देश के राजनैतिक तंत्र के लिए शर्मनाक स्थिति है. क्या राज धर्म यही कहता है कि किसी भी तरह से कुछ भी करके बस सत्ता से चिपके रहो और माहौल चाहे जैसा भी हो किसी की भी न सुनो देश में आज जो कुछ भी हो रहा है उसके लिए पूरे देश की जनता और नेता ज़िम्मेदार हैं क्योंकि जब वोट देकर सही व्यक्तियों को चुनने का अवसर होता है तो देश आराम फरमा रहा होता है जिससे उन लोगों को आगे बढ़ने का अवसर मिल जाता है जो यहाँ पर कतई नहीं होने चाहिए.
                                        सम्मान रखना या लौटना अन्ना का व्यक्तिगत मामला है पर जिस तरह से वे खिन्न दिखाई देते हैं और उनके बारे में हमारे राजनैतिक चरित्र में कोई संवेदना नहीं दिखती है वह ज्वलंत मुद्दों को उपेक्षित करते रहने की हमारे देश के राजनैतिक तंत्र की एक सोची समझी साज़िश है क्योंकि आज देश के किसी भी राज्य में चाहे किसी भी दल की सरकार क्यों न हो पर भ्रष्टाचार और कुशासन का मुद्दा लगभग एक जैसा ही है. आज भी हम अपने संसाधनों को ज़रुरत मंदों तक पहुंचा पाने में असफल हैं क्योंकि हमारे नेता अपने करतबों के माध्यम से इसे वहां तक पहुँचने से रोकने लायक नीतियां बना पाने में सफल हैं ? अन्ना के आन्दोलन को पूरी दुनिया में सराहा गया है पर हमारी सरकारें और नेता लोग इसे पूरी तरह से अनदेखा करना चाहते हैं अन्ना की बातें देश हित में हैं पर साथ ही उनको सरकारों के इस बिगड़े हुए स्वरुप को सँभालने के लिए एकदम से बड़े परिवर्तन को करने के स्थान पर सरकारों से धीरे धीरे कानून बदलवाने की दिशा में काम करना चाहिए. लगभग सात दशकों में बिगड़ी हुई इस व्यवस्था को उन्हीं लोगों से एक झटके में सुलझवा पाना आसान नहीं है इसलिए अन्ना को इस तरह के दबावों के साथ परिवर्तनों को स्वीकार करने की दिशा में भी आगे बढ़ना ही होगा.       
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