मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

संसदीय ज़िम्मेदारी या विरोध ?

                                लोकसभाध्यक्ष मीरा कुमार की पहल पर जिस तरह से सरकार और विपक्ष ने केवल ज़रूरी वित्त और रेल को पारित करने में सरकार को पूरा सहयोग करने का आश्वासन दिया है जिसके बाद इस बात की आशा बढ़ गयी है कि  सरकार इसे संविधान के प्रावधानों के अनुसार पारित करा पाने में सफल हो जाएगी. सरकार की तरफ़ से जिस तरह से इन महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित कराने के लिए पहले से जिस तरह की तैयारियों की आवश्यकता रहा करती है इस बार वह नहीं दिखाई दी क्योंकि संविधान के अनुसार विधेयक पेश होने के ७५ दिनों के अन्दर उन्हें पारित कराने की संवैधानिक बाध्यता हर सरकार को माननी ही पड़ती है जिसे इस बार इसे मई के दूसरे हफ्ते में पारित कराने की योजना थी पर समय रहते सरकार भी चेत गई और विपक्ष ने भी ज़िम्मेदारी भरा रुख अपनाते हुए इन विधेयकों को पारित कराने के लिए अपने पूरे सहयोग की बात कहकर सरकार के लिए काम थोड़ा आसान भी कर दिया है. सरकार चाहे कोई भी दल क्यों न चला रहा हो पर उसे इस बात का ध्यान रखना ही चाहिए कि किसी अप्रत्याशित समस्या के सामने आने से पहले ही इन विधेयकों को पारित कराना एक प्राथमिकता होनी चाहिए.
                             देश में पिछले दो दशकों में जिस तरह से विभिन्न सरकारों के सामान्य काम काज में संवैधानिक प्रावधानों की अनदेखी की जाने लगी है संभवतः उसी का परिणाम है कि आज देश की संसद द्वारा लिए गए बहुत सारे फैसलों को अदालतों में चुनौतियाँ मिलने लगी हैं और अधिकांश मामलों में सरकारों को अपने पूर्व निर्धारित प्रावधानों से पीछे हटना पड़ा है या फिर उसे सुप्रीम कोर्ट की खरी खोटी सुननी पड़ी है ? क्या आज के समय के हमारे नेता उन उच्च मानदंडों को पूरा नहीं कर पाते हैं जो सरकार के सामान्य काम काज को चलाने के लिए आवश्यक हैं या फिर सरकार में काम करने वाले नौकरशाहों में वह क़ाबलियत नहीं बची है जो नए विधेयकों या प्रावधानों को बनाते समय उन पर सख्ती से निर्णय ले सकें ? आज जो कुछ भी हो रहा है उसे हम केवल न्यायिक सक्रियता कह कर अपनी जिम्मेदारियों से पीछे नहीं भाग सकते हैं क्योंकि कहीं न कहीं कुछ तो अवश्य ही ऐसा है जो सामान्य संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार नहीं किया जा पा रहा है और देश की न्यायिक प्रक्रिया को सामान्य विधायी काम काज में भी हस्तक्षेप करना पड़ रहा है ?
                            एक बार फिर से लोकतान्त्रिक मूल्यों और संसदीय मर्यादाओं के बारे में हम सभी को विचार करना ही होगा क्योंकि जब तक उन उच्च मूल्यों पर चलने के लिए हमारी विधायिका ही तैयार नहीं होगी तब तक इस तरह की समस्याएं सामने आती ही रहेंगीं. अभी तक जिस भी तरह से सरकार के पास संसद में बेहतर प्रबंधन वाले अधिकारियों की अच्छी खासी संख्या हुआ करती थी शायद उसमें कुछ कमी आ गई है या फिर कहीं न कहीं कुछ ऐसा भी चलने लगा है जो अनुभव को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की कोशिश भी कहा जा सकता है. सरकार चाहे किसी भी दल की हो निर्णय केवल अधिकारियों के माध्यम से ही किये जाते हैं तो उस स्थिति में अधिकारियों का सक्षम होना बहुत आवश्यक है क्योंकि किसी भी राजनैतिक व्यक्ति को कोई भी मंत्री पद एकदम से मिल जाता है पर अधिकारी को कड़ी मेहनत और लगन के बाद यह सब हासिल होता है और अधिकांश मामलों में विशेष विभागों में विशेषज्ञ अधिकारी ही तैनात किये जाते हैं जिनके माध्यम से सामान्य विधायी काम किये जाते हैं. आज सरकारें अधिकारियों की बेहतर ट्रेनिंग के साथ मंत्री पद सँभालने वाले नेताओं को भी संसदीय आवश्यकताओं और मर्यादाओं का पाठ पढ़ना ही नहीं चाहती हैं और किसी भी तरह केवल अपने कार्यकाल को ही पूरा करना चाहती हैं यही समस्याओं की जड़ बन चुकी है.      
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी:

  1. यह कैसा लोकतन्त्र है जहाँ आप के साथ नहीं तो आप के खिलाफ हैं. अपने मन-माफिक टिप्पणियाँ प्राप्त न होने पर डिलीट कर दी जाती हैं.

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