मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

नेताओं की मानसिक स्थिति

                                 देश में जिस तरह से आने वाले आम चुनावों के लिए माहौल बनना शुरू हो रहा है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि इस बार के इन आम चुनावों में राजनीति शालीनता की सारी सीमाओं को तोड़कर आगे जाने वाली है. ऐसा नहीं है कि अभी तक राजनीति में बहुत शुचिता को स्थान दिया जाता था पर अब जिस तरह से व्यक्तिगत आरोपों ने राजनीति के केंद्र में स्थान बना लिया है वह देश के नेताओं के मानसिक दीवालियेपन की तरफ़ ही इशारा करता है ? देश में किसी भी चुनाव के समय भ्रष्टाचार कभी भी बड़ा मुद्दा नहीं रहा करता है जो कि इन नेताओं की उस बाज़ीगरी की तरफ़ भी ध्यान आकृष्ट कराता है जो जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से इस तरह से हटाने में सफल रहा करते हैं. दो दशक पहले तक जिस तरह से राज्यों में विकास की बातें कभी भी वोट दिलवाने की गारंटी नहीं हुआ करती थीं आज वह स्थिति बदलनी शुरू हो चुकी है क्योंकि जनता में इस स्तर पर जागरूकता आनी शुरू हो चुकी है और वो भी अब बदले हुए तरीके से सोचने लगी है.
                        क्या हमारे देश में अन्य मुद्दों की कोई कमी है जो हमारे नेता इस तरह की राजनीति करने की तरफ़ अनायास ही मुड़ जाते हैं हो सकता है कि किसी रणनीति के तहत ही सभी दल इस तरह से कुछ भी बोलने में सक्षम कुछ नेताओं को इस काम कर लिए छोड़ देते हैं पर उन पर जिस तरह से लगाम भी होनी चाहिए वह भारतीय राजनीति में कहीं से भी नहीं दिखाई देती है. इस तरह के बयानों से जनता को क्या सार मिल सकता है या फिर जनता के पास करने के लिए क्या शेष रह जाता है यह सोचने के लिए किसी के पास भी समय नहीं है आज जिस तरह से जनता जागरूक हो रही है तो उससे यही लगता है कि आने वाले समय में वह इन नेताओं से यह प्रश्न भी पूछ सकती है कि जब उन्हें राजनीति करने के एक समान अवसर भारतीय संविधान द्वारा दिए जा चुके हैं तो फिर वे क्यों इस तरह के घटिया बयान देकर राजनीति की दिशा को बदलने का काम करना चाहते हैं ? शायद इन नेताओं को अपनी क़ाबलियत से अधिक इस तरह के आरोपों पर अधिक विश्वास रहा करता है तभी यह रोज़ बढ़ता ही जा रहा है.
                      सत्ताधारी दल इस तरह से करें तो समझ में आता है क्योंकि उन्हें जनता का ध्यान अपनी नाकामियों से हटाना होता है पर जब विपक्षी दल भी इस तरह के आरोपों पर ही ध्यान देने लगते हैं तो उससे सत्ताधारी दलों का काम ही आसान हो जाता है. कोई भी सत्ताधारी दल यह नहीं चाहता है कि चुनाव के समय विपक्ष उसकी कमियों को इंगित कर उनके लिए असहज स्थिति उत्पन्न कर सके और इसी क्रम में वे विपक्षियों और जनता का ध्यान बंटाने के लिए इस तरह के बयान देना शुरू कर देते हैं जिससे लोगों का ध्यान मुख्य मुद्दों से हटकर इन नए विवादों पर हो जाता है जिससे लोग इन्हें मनोरंजन के तौर पर लेने लगते हैं और सत्ताधारी दलों के लिए इन मुद्दों से पैदा होने वाले दबाव को कम करने वाले करने में आसानी हो जाती है. क्या देश में हर काम केवल कानून के दबाव से ही कराना पड़ेगा क्योंकि चुनाव आयोग केवल चुनाव के समय संविधान के तहत इस तरह से कुछ श्रेणियों में आपत्ति जनक आरोपों पर स्वतः या शिकायत होने पर संज्ञान लिया करता हैं पर क्या अब राजनीति में हर काम चुनाव आयोग ही अपने डंडे से कराएगा और हमारे नेता इसी तरह से एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का काम करते रहेंगें ?  
 
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