मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

देवबंद का राजनैतिक असर

                                  विश्व प्रसिद्द इस्लामिक शिक्षा केंद्र देवबंद ने जिस तरह से मुलायम द्वारा भाजपा नेता आडवानी की तारीफ़ करने की कड़ी आलोचना की है उसके बाद मुलायम या अखिलेश को एक बार देवबंद जाना ही होगा क्योंकि मुसलमानों से जुड़े इस महत्वपूर्ण केंद्र की इस तरह की नाराज़गी को सपा आज झेल पाने की स्थिति में नहीं है. जिस तरह से मुलायम केवल कांग्रेस को परेशान करने के लिए अडवाणी का दांव खेल रहे थे अब वह उनके लिए उल्टा ही साबित होने वाला है क्योंकि अभी तक केवल अपने सियासी फायदों के लिए देश में गैर भाजपा दलों ने मुसलमानों को केवल वोट बैंक की तरह ही इस्तेमाल किया है उसके बाद अब यदि मुसलमानों के इस केंद्र से यह स्वीकार जाए कि सपा समेत सभी दलों ने यह काम किया है तो देश के लिए यह बहुत अच्छा ही होगा. आज यदि मुसलमान अपने को एक वोट बैंक से हटकर राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल नागरिक के रूप में प्रस्तुत करके इन नेताओं से यह हिसाब मांगें कि आज़ादी के बाद से उन्हें वोट बैंक के रूप में इकठ्ठा रहने से उनका क्या भला हुआ तो किसी के पास कोई जवाब नहीं होगा और इस स्थिति से लम्बे समय में देश और भारतीय मुसलमानों का ही भला हो सकेगा.
                          आज़ादी के बाद जिस तरह से भारत में मुसलमानों ने जिन मुद्दों को अपने हित में मानकर एकजुट होकर वोट देने की शुरुआत की थी वह आज भी बदस्तूर जारी है और इसी कारण से भाजपा को छोड़कर अन्य सभी दल आज भी उन्हें केवल अपने सियासी लाभ के लिए ही इस्तेमाल करने से नहीं चूकते हैं. आज यदि देवबंद से यह आवाज़ उठी है तो इसे आगे बढ़ाने की आवश्यकता है क्योंकि आज देश में मुसलमान जिस तरह से तेज़ी से शिक्षित होकर विकास के रास्ते पर चलने के किये आगे बढ़ना शुरू कर चुके हैं उससे पूरी व्यवस्था में ही परिवर्तन लाया जा सकता है. आख़िर क्या कारण रहा जिससे मुसलमानों ने अपने हितों को देश के अन्य नागरिकों से अलग मानकर खुद को अलग से पेश करने की कोशिशें की जिससे आज भी वे अन्य सामाजिक पिछड़े समूहों में सबसे पीछे ही दिखाई देते हैं ? जब एक अदृश्य और कपोल कल्पित ख़तरे से अपने को जकड़कर मुसलमानों के नेतृत्व ने अपने को नेताओं के सामने बेचारा साबित कर दिया तो उसके बाद से ही उनके विकास की बाते केवल भाषणों में ही सिमट कर रह गईं जिसका असर आज उनके पिछड़ेपन के रूप में सभी के सामने है.
                         आज भी यदि परिवर्तन लाने की बात करनी है तो उसके लिए पहले मुसलमानों को अपने एक वोट बैंक होने के मिथक को तोड़ना ही होगा जिससे कुछ राजनैतिक दल उनका इस तरह से लाभ उठाना बंद कर सकें और मुसलमान इन दलों के नेताओं से यह पूछ भी सकें कि उनके हितों को बचाए रखने और उनकी कुर्सियों को सुरक्षित रखने से आम मुसलमान का क्या भला हुआ है ? यह सवाल आज की युवा मुस्लिम पीढ़ी ही पूछ ले तो कम से कम अब उनके लिए नेताओं की सोच में बदलाव की शुरुआत तो हो सके वरना एक बार इस पीढ़ी को भी यदि सत्ता का चस्का लग गया तो आने वाले २० सालों के लिए मुसलमान फिर से उसी अंधी गली में भटकते रहेंगें जहाँ से उन्हें बाहर निकालने के हसीन सपने नेता लोग आज तक दिखाते रहते हैं ? आज जब देश के संविधान ने सभी नागरिकों को देश में एक समान अधिकार दे रखे हैं तो फिर मुसलमान अपने को आगे बढ़ाने के लिए उनका इस्तेमाल करने के स्थान पर नेताओं की तरफ़ क्यों उम्मीद की नज़रें लगाये रहते हैं ? देश ने उन्हें सब कुछ दिया है और अब उनकी बारी है कि वे आगे बढ़कर देश को वह सब कुछ दें जो आज तक वे नहीं दे सके हैं क्योंकि यदि मुसलमानों और देश के बीच से यदि इन नेताओं को हटा दिया जाए तो वह दिन दूर नहीं होगा जब भारत के मुसलमान दुनिया के सबसे शिक्षित, संपन्न और प्रगतिशील माने जाने लगेंगें.    
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