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सोमवार, 27 मई 2013

नक्सलवाद - समस्या और समाधान

                                   छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हुए हमले के कारण जिस तरह से एक बार फिर से देश में इस समस्या पर चिंता व्यक्त की जा रही है उससे कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस बारे में आज तक राजनैतिक दलों के पास कोई स्पष्ट कार्ययोजना ही नहीं है जिससे वे इस समस्या के सही समाधान के बारे में कोई कड़ा क़दम उठा सकें और आदिवासियों के क्षेत्र में इस तरह से पनपने वाली किसी भी समस्या से सही ढंग से निपटना भी सीख सकें. राज्य के सीएम रमन सिंह ने भी इस बार बिलकुल प्रासंगिक सवाल उठाया है कि जब देश की सरकार पाकिस्तान से बात कर सकती है तो इन नक्सलियों से बात करने में क्या अडचनें हैं ? देश एक अन्दर ही एक लाल गलियारा लगभग ४० वर्षों से पुलिस और सुरक्षा बलों के लिए चुनौती बना हुआ है जिस कारण से भी आज तक इन आदिवासी बाहुल्य दुरूह और दुर्गम स्थलों तक आम प्रशासन की पहुँच ही नहीं हो पाती है जिससे यहाँ विकास का कोई मॉडल पनप ही नहीं पा रहा है और सरकार की नाक के नीचे नक्सली अपना तांडव अपनी मर्ज़ी से कर पाने में सक्षम हैं ?
                                   आख़िर इस बात का जवाब हमारे नेताओं के पास क्यों नहीं है कि जब देश के इन क्षेत्रों के विकास के लिए लगातार धन की उपलब्धता रहती है तो यहाँ तक विकास क्यों नहीं हो पा रहा है और यदि विकास धरातल तक नहीं पहुँच रहा है तो उसके पीछे किसका और कितना हाथ है इस बात पर भी कोई विचार क्यों नहीं करना चाहता है ? आख़िर विभिन्न दलों की सरकारें इस मामले पर कुछ ठोस उपाय आज तक क्यों नहीं कर पायी हैं और क्या परिवर्तन किया जाना चाहिए जिसके बाद से सरकार के लिए आम आदिवासियों के जीवन को सुगम करने के लिए कुछ ठोस किया जा सके ? विकास का कोई भी वो मॉडल जो दिल्ली या रायपुर में बनाया जायेगा किसी भी तरह से कारगर नहीं हो सकता है क्योंकि जिन लोगों को इससे सीधे लाभ मिलना है उनके लिए उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सही दिशा में सोचे बिना कुछ भी सही कैसे किया जा सकता है. नक्सली भी हमारे में से ही भटके हुए लोग ही हैं और यह भी सही है कि वे किसी लोकतंत्र में विश्वास नहीं करते हैं पर देश की वो जनता जो लोकतंत्र में विश्वास करती भी है उसके लिए भी सरकार क्या कर पाई हैं ?
                                  आज आवश्यकता यह है कि दलीय राजनीति से ऊपर उठकर एक विशेष संसदीय सत्र बुलाया जाए जिसमें केवल इसी बात पर चर्चा की जाए कि इस समस्या से किस तरह से निपटा जाए और इन क्षेत्रों में पुनर्वास के कार्यक्रम को किस तरह से चलाया जाए क्योंकि जब तक इन नक्सलियों पर दोहरा दबाव नहीं बनाया जाएगा तब तक आम लोगों की इन इलाक़ों में सुरक्षा हमेशा ही संदिग्ध ही रहेगी. नक्सलियों से बातचीत का रास्ता भी खुला रखा जाना चाहिए क्योंकि लम्बे समय से इस तरह से चल रहे इस संघर्ष से आम आदिवासियों के हितों का ही सबसे अधिक नुक्सान हो रहा है ? समाधान के केंद्र में नक्सल समस्या नहीं बल्कि उसके कारणों के साथ आदिवासियों के हितों और उनके अधिकारों पर भी ठोस और प्रभावी बात की जानी चाहिए क्योंकि जो सबसे अधिक प्रभावित हैं यदि उनके बारे में ही कुछ नहीं सोचा जाएगा तो विकास किस तरह से पूरा होगा. यदि आवश्यकता पड़े तो इसके लिए राज्यों के अधिकारों को छेड़े बिना लाल गलियारे के लिए विशेष सुरक्षा बल और विकास निधि की स्थापना भी की जाए जो सभी प्रभावित राज्यों से समन्वय स्थापित कर विकास को प्राथमिकता पर ला सके पर केवल राजनैतिक रोटियां सेंकने में माहिर नेता क्या यह सब करना भी चाहेंगें यही आज सबसे बड़ा प्रश्न भी है ?     
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