सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद महत्वपूर्ण फैसले में जिस तरह से जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा ८(४) को निरस्त कर एक तरह से भारतीय राजनीति में व्याप्त उस गंदगी को साफ करने का काम अच्छी तरह से किया है जिसमें कानून की आड़ में सज़ायाफ्ता नेता लोग अपने को आसानी से छिपा लिया करते थे. जिस तरह से इस पूरी धारा को ही कोर्ट ने रद्द कर दिया है और यह आदेश तुरंत ही प्रभावी हो गया है इससे उन नेताओं के लिए बहुत बड़ा संकट आने वाला है जो निचली अदालतों द्वारा दोषी साबित होने के बाद भी इसके माध्यम से अपने पदों और सदस्यताओं को बचाने में सफल हो जाया करते थे. देश में बहुत सारे ऐसे कानून हैं जो राजनेताओं द्वारा सिर्फ अपने को सुरक्षित रखने के लिए ही बनाये गए हैं जिसमें यह सबसे शर्मनाक पहलू था जिसमें कोई दोषी व्यक्ति आराम से जेल में रहते हुए ही चुनाव लड़ने में सक्षम हो जाता था और आसानी से जीत भी जाया करता था अब इस धारा के रद्द हो जाने के बाद कोई भी नेता इससे सुरक्षित नहीं रह पायेगा और इन पर कानून का दबाव और बढ़ जायेगा.
आज भी देश के पूरे संविधान की समग्र व्याख्या और उसमें आवश्यक संशोधनों को करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है क्योंकि जिन कानून और प्रावधानों को १९५० में बनाया और लागू किया गया था आज वैसा माहौल ही नहीं बचा है और किसी भी परिस्थिति में उन पुराने और इस तरह के वर्ग विशेष को समर्थन करने वाले किसी भी कानून को तुरंत ही आवश्यक निर्देशों के माध्यम से निरस्त कर दिया जाना ही देश के लिए उचित होगा क्योंकि जब तक पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए कानून का महत्व एक जैसा नहीं होगा तब तक नेता लोग अपने आप को इस तरह से किसी भी परिस्थति में बचा ले जाने लायक कानूनों से सुरक्षित करने में कोई कमी छोड़ेंगें ? आज देश को उस स्तर का नेतृत्व मिल ही नहीं पा रहा है जो कभी हुआ करता था जिसके नैतिक मूल्य आम लोग अपने सार्वजनिक जीवन में उतारा करते थे पर आज पूरे देश में शायद ही आम लोग किसी नेता जैसा बनने के बारे में सोचना भी चाहते हों ? इस नैतिक पतन के लिए केवल विधायिका ही ज़िम्मेदार है क्योंकि उसने ही इस तरह के संशोधनों से अपने को बचाने की पूरी व्यवस्था कर रखी है.
आज सभी को इस बात पर विचार करने की बहुत आवश्यकता है कि आख़िर हमारी विधायिका आज किस तरह से काम कर रही है कि उसके अधिकतर उन महत्वपूर्ण कामों में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है ? कुछ लोग इसे कोर्ट की अतिसक्रियता कहने से भी नहीं चूकेंगे पर यदि कोर्ट इस तरह के मामलों में संवेदनशील होकर विचार न करे तो संभवतः विधायिका ऐसे कानून बनाने से भी परहेज़ न करें जो केवल उनके हितों का ही अनन्त काल तक संरक्षण करते रहें ? देश में संविधान ने सभी के हितों को बराबर के अधिकारों से सुरक्षित कर रखा है और जब लोकतंत्र का एक स्तम्भ इस तरह से अपने हितों को मज़बूत करने के लिए सोचना शुरू कर दे तो न्यायपालिका पर यह दायित्व और भी आ जाता है कि वह विधायिका के इस तरह के किसी भी प्रयासों को देश हित में तुरंत ही निरस्त कर दे. केवल एक दूसरे पर उंगली उठाने से काम सरल नहीं होने वाला है बल्कि आज देश के नेताओं और विधायिका को यह गंभीरता से सोचना ही होगा कि आगे आने वाले समय में वह कोर्ट से इस तरह के निर्णयों के लिए तैयार है या फिर इससे सीख लेते हुए आने वाले समय में ऐसे कानून बनाने से अपने को दूर ही रखना चाहेगी.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज भी देश के पूरे संविधान की समग्र व्याख्या और उसमें आवश्यक संशोधनों को करने की बहुत बड़ी आवश्यकता है क्योंकि जिन कानून और प्रावधानों को १९५० में बनाया और लागू किया गया था आज वैसा माहौल ही नहीं बचा है और किसी भी परिस्थिति में उन पुराने और इस तरह के वर्ग विशेष को समर्थन करने वाले किसी भी कानून को तुरंत ही आवश्यक निर्देशों के माध्यम से निरस्त कर दिया जाना ही देश के लिए उचित होगा क्योंकि जब तक पूरे देश में सभी नागरिकों के लिए कानून का महत्व एक जैसा नहीं होगा तब तक नेता लोग अपने आप को इस तरह से किसी भी परिस्थति में बचा ले जाने लायक कानूनों से सुरक्षित करने में कोई कमी छोड़ेंगें ? आज देश को उस स्तर का नेतृत्व मिल ही नहीं पा रहा है जो कभी हुआ करता था जिसके नैतिक मूल्य आम लोग अपने सार्वजनिक जीवन में उतारा करते थे पर आज पूरे देश में शायद ही आम लोग किसी नेता जैसा बनने के बारे में सोचना भी चाहते हों ? इस नैतिक पतन के लिए केवल विधायिका ही ज़िम्मेदार है क्योंकि उसने ही इस तरह के संशोधनों से अपने को बचाने की पूरी व्यवस्था कर रखी है.
आज सभी को इस बात पर विचार करने की बहुत आवश्यकता है कि आख़िर हमारी विधायिका आज किस तरह से काम कर रही है कि उसके अधिकतर उन महत्वपूर्ण कामों में सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है ? कुछ लोग इसे कोर्ट की अतिसक्रियता कहने से भी नहीं चूकेंगे पर यदि कोर्ट इस तरह के मामलों में संवेदनशील होकर विचार न करे तो संभवतः विधायिका ऐसे कानून बनाने से भी परहेज़ न करें जो केवल उनके हितों का ही अनन्त काल तक संरक्षण करते रहें ? देश में संविधान ने सभी के हितों को बराबर के अधिकारों से सुरक्षित कर रखा है और जब लोकतंत्र का एक स्तम्भ इस तरह से अपने हितों को मज़बूत करने के लिए सोचना शुरू कर दे तो न्यायपालिका पर यह दायित्व और भी आ जाता है कि वह विधायिका के इस तरह के किसी भी प्रयासों को देश हित में तुरंत ही निरस्त कर दे. केवल एक दूसरे पर उंगली उठाने से काम सरल नहीं होने वाला है बल्कि आज देश के नेताओं और विधायिका को यह गंभीरता से सोचना ही होगा कि आगे आने वाले समय में वह कोर्ट से इस तरह के निर्णयों के लिए तैयार है या फिर इससे सीख लेते हुए आने वाले समय में ऐसे कानून बनाने से अपने को दूर ही रखना चाहेगी.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें