मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 27 जुलाई 2013

अमेरिका, आयुर्वेद और विरोध

                             अपने आर्थिक हितों की हर स्तर पर रक्षा करने वाले अमेरिका के लिए अब आयुर्वेदिक दवाइयों के बढ़ते हुए उपयोग के ग्राफ से चिंता होने लगी है क्योंकि जिस तरह से विकसित देशों में तेज़ी के साथ इन निरापद औषधियों ने अपनी जगह बनानी शुरू कर दी है उसके बाद एलोपैथिक दवा कम्पनियों के व्यापारिक हितों पर आने वाले समय में बड़ी चोट पड़ने की सम्भावना भी है क्योंकि जब से मानव का विकास हुआ है तब से ही उसके शरीर में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है और किसी भी बड़े परिवर्तन में जिस तरह से लाखों वर्ष लगा करते हैं उसको देखते हुए अभी आने वाले हजारों वर्षों में भी कुछ बदलाव नहीं होने वाला है जिससे एलोपैथिक कम्पनियों के लिए भी व्यापार करने में अदि दिक्कतें सामने आ सकती हैं. एक समय था जब दुनिया के अधिकांश भागों पर अंग्रेजों का शासन हो चुका था तब उन्होंने अपनी पद्धति में विकास लाने के लिए उसे पूरी दुनिया में फैलाया और उसमें नए अनुसंधानों पर भी काफी जोर दिया. जिसके परिणाम स्वरुप पूरी दुनिया में एलोपैथी का तेज़ी से प्रसार हुआ था और आज भी आपातकालीन परिस्थितियों में इस पद्धति से लोगों को तेज़ी से आराम देने में सफलता मिला करती है.
                               आयुर्वेदिक औषधियों को यदि शास्त्रोक्त विधियों से बनाया जाए तो वे किसी भी परिस्थिति में मनुष्यों के शरीर पर किसी भी तरह का दुष्प्रभाव नहीं डाल सकती हैं फिर भी उस पर पश्चिमी देशों में लगातार यह दबाव बनाया जाता है कि उनके उपयोग से शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है और इन्हें बिना किसी अनुसन्धान के ही बना दिया गया है ? विश्व में आयुर्वेद ही एक मात्र ऐसे चिकित्सा पद्धति है जिसे पूरी तरह से अपने विकास के दौरान अनुसंधानों से पूरी तरह से गुज़ारना पड़ा था और उस समय के किये गए अनुसंधान इतने कारगर थे कि आज भी उन पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लगा पाया है पर नालंदा और तक्षशिला जैसे शिक्षा केन्द्रों के नष्ट हो जाने से आज आयुर्वेद के पास उन अनुसंधानों को साबित करने के लिए कुछ भी नहीं बचा है ? आज जिस तरह से अपने व्यापारिक हितों को बचाए रखने के लिए एलोपैथिक कम्पनियां विश्व स्वास्थ्य संगठन तक में जुगाड़ कर दवाएं बेचने में विश्वास करने लगी हैं उससे बचने के स्थान पर केवल व्यापारिक हितों की बात ही की जा रही है जिससे आयुर्वेद के प्रचार प्रसार पर प्रभाव पड़ने के साथ ही उसके निरापद उपचार होने पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया जाता है.
                               आज भी जिस तरह से नवीन अनुसंधान वाली औषधियां कितनी मंहगी होती हैं और उन पर पेटेंट कानून भी लागू होते हैं तो उस दशा में यदि आयुर्वेद के माध्यम से लोगों के स्वास्थ्य को सुधारने और बचाए रखने में मदद मिलती है तो इसमें क्या बुराई है ? आज के समय में आयुर्वेद को बचाए रखने और आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी भारत में आयुष विभाग पर है पर उसे इसके लिए जितना बजट मिलना चाहिए वह कहीं से भी नहीं मिल पाता है और इस काम में जिस स्तर के विशेषज्ञों को लगाया जाना चाहिए उसका भी हमारी तरफ से सदैव ही अभाव रहा करता है ? अमेरिका को यदि आज हमारी चिकित्सा पद्धति पर ऊँगली उठाने का अवसर मिल रहा है तो इसमें कहीं न कहीं से हमारी ही कमी है हमें अपने यहाँ उत्पादित की जाने वाली किसी भी आयुर्वेदिक औषधि की गुणवत्ता और निरापद होने पर जिस तरह से नज़र रखनी चाहिए हमारा तंत्र उसमें पूरी तरह से विफल हो जाया करता है जिससे भी आयुर्वेद से जुड़े हुए नए लोगों में इस तरह का कोई भी दुष्प्रचार ही काम कर जाता है इससे बचने के लिए अब देश की आयुर्वेदिक दवा कम्पनियों को यदि पूरे विश्व में अपने व्यापार को फैलाना है तो उन्हें अब गुणवत्ता पर स्वतः ही ध्यान देना ही होगा.   
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