मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 12 अगस्त 2013

कश्मीर-राजनीति के बिना नेता ?

                                  किश्तवाड़ में ईद के मौके पर जिस तरह से नमाज़ अदा करने के बाद नमाज़ियों की भीड़ ने पकिस्तान के समर्थन में नारे लगाए और भारत का विरोध किया उसके राजनीति में बहुत कुछ मायने निकाले जा सकते हैं क्योंकि जब तक हर राजनैतिक दल इस तरह की मानसिकता और उससे उपजने वाले संकट पर विचार नहीं करेगा तब तक किसी भी परिस्थिति में कोई भी स्थान शांत नहीं रह पाएगा. आखिर ईद के मुबारक मौके पर किन लोगों ने इस तरह की हरक़त की और उनका इसके पीछे क्या मक़सद था जब तक इस बात पर विचार नहीं किया जाएगा तब तक इस तरह के विरोधों के माध्यम से शुरू होने वाली हिंसा को किसी भी तरह से काबू में नहीं लाया जा सकता है. किश्तवाड़ के उन मुसलमान निवासियों को यह स्पष्टीकरण तो देना ही चाहिए कि इस तरह के विरोध का क्या औचित्य था क्योंकि इस तरह की हरकतें आम भारतीय जन मानस में जो संदेह उत्पन्न करती हैं उनमें सद्भाव की गुंजाईश पूरी तरह से ख़त्म हो जाती है क्या किसी व्यक्ति विशेष, सुरक्षा बल या सेना ने उन्हें नमाज़ पढ़ने से रोका था जो कथित अमन और भाईचारे के त्यौहार ईद पर उन्होंने इस तरह की हिंसा से पूरा क्षेत्र को झुलसाने का काम किया ?
                                  कश्मीर घाटी में आतंकियों के प्रभाव के कम होने और वहां से कश्मीर पंडितों के सफाए के बाद जिस तरह से आतंकियों ने अब जम्मू क्षेत्र में इस तरह से स्थानीय निवासियों को भड़का कर अशांति फैलाने का काम  शुरू किया है उससे सबसे अधिक नुक्सान वहां के आम नागरिकों का ही होने वाला है क्योंकि जिस तरह से पहले रामबन में सुरक्षा बलों की सामान्य जांच की प्रक्रिया में बाधा डालने वाले ने यह आरोप लगाया कि वह मस्जिद से आ रहा था और रामबन में पूरी तरह से तमाशा खड़ा किया गया जिसमें कोई सच्चाई नहीं थी तो ईद के मौके पर जब उनकी धार्मिक स्वतंत्रता में किसी तरह का व्यवधान उत्पन्न नहीं किया गया तो इस तरह की अराजकता का क्या मतलब बनता है ? आज जब जम्मू कश्मीर में अधिकांश सुरक्षा स्थानीय पुलिस के हाथों में जा चुकी है और केवल आतंकियों से निपटने के लिए ही अर्ध सैनिक बल सहायक के तौर पर तैनात किए गए हैं तो भी कश्मीरी मुसलमानों को यह अच्छा नहीं लग रहा है ? इस तरह की घटनाएँ जहाँ नागरिक प्रशासन के सहयोग के लिए एक बार फिर से सेना की तैनाती की तरफ़ पूरे परिदृश्य को ले जाती हैं वहीं सख्ती किए जाने पर लोग सेना को हटाने की मांग करने लगते हैं ?
                                 भारत में जहाँ सभी धर्मों के अनुयायियों को पूरी तरह से अपने धर्म को अपनाने की छूट मिली हुई है तो उसका मोल पाकिस्तान में बैठे उन लोगों को नहीं समझ में आ सकता है जो इस्लाम के नाम पर मांगे गए इस्लामी राष्ट्र में पवित्र रमज़ान माह में शुक्रवार की नमाज़ भी बंदूकों के साए में पढ़ने के आदी रहे हैं ? धर्म के नाम पर विद्वेष फैलाने वाले पाकिस्तान में बैठे आतंकियों के सरगनाओं को यही एक बात हज़म नहीं होती है कि विश्व में दूसरे स्थान पर इस्लामी आबादी रखने वाले भारत में सब कुछ इतनी आसानी से कैसे निपटता जाता है जबकि आम तौर पर इस्लाम के नाम पर शरिया कानून से संचालित अधिकांश इस्लामी राष्ट्रों में आज भी मुसलमान मुसलमानों को ही मारने में लगा हुआ है ? इस तरह की किसी भी घटना के बाद किसी भी दल को ओछी राजनीति करने का अवसर नहीं निकलना चाहिए और साथ ही सत्ताधारी दल को भी यह समझना चाहिए कि उसकी ख़ुफ़िया और सुरक्षा एजेंसी में कहीं न कहें कोई बड़ी खामी है जिसे सरकार में बैठे हुए अधिकारी और नेता नहीं समझ पा रहे हैं ? जब पूरे क्षेत्र के हिंसा प्रभावित जिलों में सेना तैनात कर दिया गया है तो अब कुछ कथित मानवाधिकार के पैरोकार विशेष सुरक्षा कानून को वापस लेने की नौटंकी करने में नहीं चूकेंगें और अपनी राजनीति चमकाने से बाज़ भी नहीं आयेंगें. ऐसे में दलगत राजनीति को पीछे छोड़कर सभी को एक सुर में सेना के उपायों का समर्थन ही करना चाहिए.       
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