मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

दंगे - समाज, सरकार और पुलिस

                                     मुज़फ्फरनगर में एक ऐसी घटना जिसे समाज के प्रभावी लोगों के हस्तक्षेप और पुलिस की उचित कार्यवाही से समय रहते रोका जा सकता था पर हर स्तर पर हुई लापरवाही ने वहां जिस तरह से नफरत की आग को भड़काने का काम ही किया उसका कोई मतलब समझ में नहीं आता है क्योंकि जिस चौपाल पर बैठकर लोग के साथ ही हुक्के गुड गुडाया करते थे आज वे सूनी हैं और उनको सूना करने के ज़िम्मेदार लोग आज एक दूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं. इस पूरे प्रकरण पर यदि हम गौर करें तो इसमें समाज अपनी भूमिका पूरी तरह से निभाने में हर स्तर पर असफल ही होता चला गया नेताओं से कोई उम्मीद तो नहीं की जाती है इसलिए उन्होंने इस मौके को भी अपने वोट बढ़ाने के लिए एक अवसर के रूप में भुनाना शुरू कर दिया जिससे परिस्थितियों में और घी पड़ता चला गया और जिस चिंगारी को समझ कर आसानी से बुझाया जा सकता था उसे हवा देकर पूरी तरह से दावानल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गयी केवल सरकार को कोसने से ही इस मसले पर कोई सही सोच विकसित नहीं की जा सकती है.
                                     सबसे बड़ी बात यह है कि जब पश्चिमी यूपी की जाट बिरादरी भी मुसलमानों की तरह ही इस तरह के अंतरजातीय या धार्मिक विवाहों जैसे किसी भी सम्बन्ध को आगे बढ़ाने का विरोध किया करती है तो क्या केवल बच्चों के बारे में सोचते हुए उन्हें इस तरह की परवरिश देने का प्रयास किया जाना चाहिए जिससे स्थानीय सामजिक ताना बाना आसानी से न टूटे ? भारतीय ग्रामीण क्या शहरी समाज में आज भी इस तरह के रिश्तों को सहजता से नहीं लिया जाता है तो इस बात के लिए समाज के ज़िम्मेदारों को ही पहल करनी चाहिए क्योंकि लड़कपन की उम्र में जब लड़के लड़की इस तरह के सम्बन्ध में होते हैं तो उन्हें समाज के साथ अपनी जान की परवाह भी नहीं होती है ? सामाजिक परिस्थितियों को उसी तरह से ढालने का प्रयास किया जाना चाहिए जिससे वास्तविक सामाजिक समरसता बनी रह सके. कवाल मामले में यदि समाज के लोग सचेत होते तो किसी भी लड़के की इतनी हिम्मत नहीं हो सकती थी कि वह आते जाते समय किसी भी लड़की को छेड़ सके पर हम शायद इस बात पर ही चुप हो जाते हैं कि वह लड़की हमारे परिवार की नहीं है तो हमें क्या आजकल तो यह सब आम बात है पर यह किसी तरह से समाज को नुक्सान पहुंचा सकती है यह सभी ने देख ही लिया है.
                                    पुलिस भी जिस तरह से किसी भी छेड़ छाड़ की घटना को केवल लड़की के चरित्र से ही जोड़ कर आगे बढती है और स्थानीय प्रशासन और नेताओं के सामने नत मस्तक रहती है उससे भी इस तरह की घटनाओं को बढ़ावा मिलता है. वैसे तो देश के किसी भी हिस्से में लड़कियों और महिलाओं को सुरक्षित करने के लिए ढेरों कानून बने हुए हैं पर क्या उन कानून पर सही तरह से अमल भी किया जाता है क्योंकि यदि पुलिस की कार्यशैली सही होती तो संभवतः न्याय की आशा में लड़की के परिजन भी उसके पास जाना पसंद करते पर आज थानों में जिस तरह से किसी भी तरह के अपराध को दर्ज न करना चलन में है तो उस स्थिति में ही उन लड़कों ने इतना बड़ा कदम उठाया जिसके प्रतिशोध में उनकी भी जान ही चली गयी और पूरे प्रदेश में अमन पर खतरे के बादल मंडराने लगे ? आज जब प्रदेश में समुचित संख्या में महिला पुलिस कर्मी भी हैं तो सुबह और दोपहर लड़कियों के विद्यालयों के पास उनके साथ पुलिस को शोहदों पर नियमित तौर पर कार्यवाही करनी चाहिए जिससे समाज में पुलिस के प्रति सम्मान बढे और सुरक्षा की भावना अन्दर से महसूस हो. कर्फ्यू लगे शहर की शांति जब सायरन से टूटती है तो उससे भय में ही बढ़ोत्तरी होती है. अब सही समय है कि घटना के बाद सचेत होने के स्थान पर हम उसके कारकों पर विचार करें और समाज में समरसता लाने का प्रयास भी करें.              
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