मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 9 सितंबर 2013

दंगे और आरोप-प्रत्यारोप

                                     पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में भड़के दंगे के बाद जिस तरह से नेता अब राजनैतिक उठापटक में लगे हुए हैं उससे यही लगता है कि आने वाले समय में अभी इनके द्वारा और भी वैमनस्यता फ़ैलाने वाले हर एजेंडे पर काम किया जाता रहेगा ? जिस तरह से २७ अगस्त को कवाल से भड़की हिंसा ने इतना विकराल रूप ले लिया है कि अब प्रशासन की मंशा के अनुरूप सख्ती करने के बाद भी वहां पर शांति दूर दूर तक नहीं दिखाई दे रही है तो अब इस तरह के सुनियोजित षड्यंत्रों के माध्यम से फैलाये जा रहे दंगों के पीछे की मानसिकता के बारे में सोचने की बहुत आवश्यकता है क्योंकि ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिनका जवाब अखिलेश सरकार को ही देना होगा और उन जवाबों को तलाशे बिना किसी भी तरह से शांति को नहीं लाया जा सकता है. आख़िर वे कौन से कारण थे जिनके चलते स्थानीय प्रशासन ने कवाल कांड में किसी भी अभियुक्त को तेज़ी दिखाते हुए हिरासत में लेकर कानून का राज स्थापित करने की कोशिश क्यों नहीं की और यदि किसी दबाव में ऐसा किया गया तो फिर दूसरे पक्ष द्वारा की गयी प्रतिहिंसा को सही ठहराने के लिए उनके पास भी बहुत सारे तर्क आ ही गए हैं क्योंकि सरकारें जब एक तरफ़ा कार्यवाही में विश्वास करती हैं तो समरसता को बहुत चोट पहुँचती है.
                                          आज देश के इस तरह से संवेदनशील राज्यों या क्षेत्रों के लिए जिस तरह से प्रयास किये जाने की आवश्यकता है उसमें हम पूरी तरह से विफल नज़र आते हैं क्योंकि जब तक हमारे प्रसासनिक और पुलिस अधिकारियों की क्षमता के अनुसार उनको क्षेत्रों में तैनात नहीं किया जायेगा तब तक किसी भी परिस्थिति में भविष्य में इस तरह की समस्याओं से निपटने में हम सक्षम नहीं हो सकेंगें. आज देश को कर्मठ और दक्ष अधिकारियों की अधिक आवश्यकता है जबकि गौर से देखा जाये तो अब चाटुकारिता के सहारे आगे बढ़ने वाले अधिकारियों के हाथों में पूरी कमान मौजूद रहा करती है. यह सही है कि अखिलेश अभी इन सब मामलों में अनुभवी नहीं हैं पर सपा का इस तरह के मामलों में जिस तरह का रिकॉर्ड रहा है उसे सुधारने और समाज में समरसता बढ़ाने के लिए भी अखिलेश सरकार ने कोई ख़ास उपाय भी नहीं किये हैं जिससे सरकार के होने की धमक न तो शासन प्रशासन में है और न ही अपराधियों में ? मुलायम द्वारा जिस तरह से अब राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों को अपने आवास पर बुलाकर पूरी स्थिति की समीक्षा की जा रही है क्या वह पहले संभव नहीं थी या फिर वोटों के लालच में वे भी मामला गर्माने में ही लगे हुए थे ?
                                         किसी भी सरकार को इस तरह के काम करने के लिए कितने आख़िर कितने दिनों की आवश्यकता होती है और वह कब मामले को गंभीर मानकर सचेत हुआ करती है इस बारे में कोई स्पष्ट नियम नहीं है पर सपा सरकार ने जिस तरह से वर्ग संघर्ष को बढ़ावा दिया और अब लखनऊ में बैठकर कड़े क़दम उठाने की बात की जा रही है उससे क्या हासिल हो सकता है ? सरकार के ही एक ताक़तवर मंत्री आज़म भी इस मामले में सख्ती किये जाने की बात कह रहे हैं पर उन्होंने २७ अगस्त को ही सख्ती किये जाने की बात कभी भी नहीं कही उसके पीछे क्या कारण हैं ? यदि सेना को पूरी छूट दे दी जाये तो २४ घन्टे में वह स्थितियों को पूरी तरह से नियंत्रण में ला सकती है पर अभी भी स्थानीय प्रशासन जिस तरह से दोहरी नीतियों पर काम कर रहा है उससे भी परिस्थितियां उलझती ही जा रही हैं. आज उ०प्र० शासन के पास उस क़द के अधिकारी ही नहीं बचे हैं जो इस तरह की परिस्थितियों में तेज़ी से निर्णय लेकर काम करने में विशेषज्ञ माने जाते हैं क्योंकि संभवतः उनको उन जगहों पर तैनात किया गया है जहाँ से सामान्य प्रशासन पर उनकी कोई पकड़ ही नहीं है. अब समय आ गया है कि तेज़ और नियमानुसार काम करने वाले ईमानदार अधिकारियों का एक ऐसा पैनेल भी यूपी में हो जो इस तरह की स्थितियों में बिना किसी राजनैतिक हस्तक्षेप के उचित क़दम उठाने के अधिकारों से लैस हो तभी प्रदेश में सद्भाव को लौटाया जा सकता है.    
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

1 टिप्पणी:

  1. ये सब ऐसे नेता है जो वोट के लिए देश बेच दें फिर दंगा क्या चीज है .

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