कोयला घोटाले में जिस तरह से जांच को आगे बढ़ाया जा रहा है उसके बाद यही लगता है कि पहले के मुकाबले देश में औद्योगिक घरानों के लिए काम करना संभवतः और भी मुश्किल होने वाला है क्योंकि जिस तरह से जनहित याचिकाओं में कैग और अन्य रिपोर्टों का हवाला देते हुए राजनैतिक पेशबंदी की जा रही है उसके बाद आने वाले समय में संभवतः किसी भी सरकार के लिए काम करना बहुत मुश्किल ही होने वाला है. इस मामले में जब पहले से ही पूरी प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में चल ही रही है तो बीच बीच में इस तरह की सनसनी फ़ैलाने से उद्योग जगत में निराशा का माहौल ही बनेगा क्योंकि नीतिगत हर तरह के मुद्दों पर जब किसी भी सरकार के हर फैसले को कटघरे में खड़ा करने की प्रवृत्ति आगे बढ़ने लगेगी तो सरकारें किस तरह से सही और त्वरित निर्णय ले सकने में समर्थ हो सकेंगीं ? नीतिगत मुद्दे जो जिस समय काल में लिए जाते हैं उनकी यदि एक दशक बाद समीक्षा की जाये तो उनमें से बहुत से मुद्दों पर फिर से निर्णय लेने की आवश्यकता पड़ती है और इसी कारण से अपने आप में विश्व के सबसे बड़े और लिखित भारतीय संविधान होने के बाद आज भी हमें उसमें संशोधनों की आवश्यकता पड़ती रहती है.
किसी भी उद्योगपति के सामान्य तरीके से अपने उद्यम की पैरवी करने के लिए सम्बंधित मंत्री या पीएम से मिलने की आवश्यकता बहुत बार पड़ती ही रहती है और राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए कई बार राज्य सरकारें भी केंद्र सरकार से इस तरह के अनुरोध आधिकारिक तौर पर करती रहती हैं इसका मतलब यह तो नहीं लगाया जा सकता है कि सम्बंधित राज्य या केन्द्रीय मंत्री ने मिलकर किसी मामले में अनियमितता कर दी है ? क्या किसी राज्य द्वारा केंद्र को पत्र लिखा जाना गलत है और यदि राज्य की संस्तुति को केंद्र ने मान लिया है तो उसे भी इस तरह के पूरे मामले में जांच का सामना करना चाहिए ? यह ऐसे सवाल हैं जिनका आज कोई भी उत्तर नहीं ढूंढ सकता क्योंकि आर्थिक और औद्योगिक रूप से पिछड़े ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक यदि बिडला समूह के समर्थन में कोई पत्र केंद्र को लिखते हैं तो उसमें गलत क्या है और क्या किसी भी राज्य से इस तरह की संस्तुतियां पहले नहीं भेजी जाती रही हैं ?
इस मामले को जिस तरह से बाल की खाल निकालने की कोशिशें की जा रही हैं उसके बाद संभवतः नीतिगत मामलों में किसी भी तरह के निर्णय लेने में अब और भी देर होने लगेगी क्योंकि किसी राज्य या क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं को देखते हुए अभी तक कई बार तेज़ी से लीक से हटकर निर्णय लिए जाते रहते हैं पर यदि सरकार के हर निर्णय को इतने सूक्ष्म तरीके की जांच के साथ आगे बढ़ाया जाने लगेगा तो क्या कोई भी मंत्री या अधिकारी देश हित में किसी भी नए काम को किसी भी स्तर पर मंज़ूरी देने से कतराने नहीं लगेंगें ? देश में कहने के लिए एक संसद भी है और उसकी ढेरों समितियां रोज़ ही जनता के पैसे पर अपनी बैठकें करती रहती हैं तो क्या उस समय कोयला मंत्रालय की समितियां अपना काम नहीं कर रही थीं और यदि कुछ गलत हो रहा था तो उन्होंने क्या उस समय वास्तव में अपनी आपत्तियां दर्ज करायीं थीं ? अगर नहीं तो देश के लिए फैसले लेने के लिए कोयला मामलों की समिति के उन सभी सांसदों को भी इसमें पक्ष बनाया जाना चाहिए क्योंकि जब देश में संविधान की मूल भावना के साथ सरकार को काम नहीं करने देना है तो हर छोटे बड़े फैसले में शामिल किसी भी व्यक्ति को आखिर क्यों छोड़ा जाये ?
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
किसी भी उद्योगपति के सामान्य तरीके से अपने उद्यम की पैरवी करने के लिए सम्बंधित मंत्री या पीएम से मिलने की आवश्यकता बहुत बार पड़ती ही रहती है और राज्यों के हितों को ध्यान में रखते हुए कई बार राज्य सरकारें भी केंद्र सरकार से इस तरह के अनुरोध आधिकारिक तौर पर करती रहती हैं इसका मतलब यह तो नहीं लगाया जा सकता है कि सम्बंधित राज्य या केन्द्रीय मंत्री ने मिलकर किसी मामले में अनियमितता कर दी है ? क्या किसी राज्य द्वारा केंद्र को पत्र लिखा जाना गलत है और यदि राज्य की संस्तुति को केंद्र ने मान लिया है तो उसे भी इस तरह के पूरे मामले में जांच का सामना करना चाहिए ? यह ऐसे सवाल हैं जिनका आज कोई भी उत्तर नहीं ढूंढ सकता क्योंकि आर्थिक और औद्योगिक रूप से पिछड़े ओडिशा के सीएम नवीन पटनायक यदि बिडला समूह के समर्थन में कोई पत्र केंद्र को लिखते हैं तो उसमें गलत क्या है और क्या किसी भी राज्य से इस तरह की संस्तुतियां पहले नहीं भेजी जाती रही हैं ?
इस मामले को जिस तरह से बाल की खाल निकालने की कोशिशें की जा रही हैं उसके बाद संभवतः नीतिगत मामलों में किसी भी तरह के निर्णय लेने में अब और भी देर होने लगेगी क्योंकि किसी राज्य या क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं को देखते हुए अभी तक कई बार तेज़ी से लीक से हटकर निर्णय लिए जाते रहते हैं पर यदि सरकार के हर निर्णय को इतने सूक्ष्म तरीके की जांच के साथ आगे बढ़ाया जाने लगेगा तो क्या कोई भी मंत्री या अधिकारी देश हित में किसी भी नए काम को किसी भी स्तर पर मंज़ूरी देने से कतराने नहीं लगेंगें ? देश में कहने के लिए एक संसद भी है और उसकी ढेरों समितियां रोज़ ही जनता के पैसे पर अपनी बैठकें करती रहती हैं तो क्या उस समय कोयला मंत्रालय की समितियां अपना काम नहीं कर रही थीं और यदि कुछ गलत हो रहा था तो उन्होंने क्या उस समय वास्तव में अपनी आपत्तियां दर्ज करायीं थीं ? अगर नहीं तो देश के लिए फैसले लेने के लिए कोयला मामलों की समिति के उन सभी सांसदों को भी इसमें पक्ष बनाया जाना चाहिए क्योंकि जब देश में संविधान की मूल भावना के साथ सरकार को काम नहीं करने देना है तो हर छोटे बड़े फैसले में शामिल किसी भी व्यक्ति को आखिर क्यों छोड़ा जाये ?
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