पश्चिमी उ०प्र० में एक बार फिर से खेतों में काम करने और अपने कामों को पूरा कर घर लौट रहे लोगों पर जिस तरह से घात लगाकर हमला किये जाने की घटनाओं में अचानक से ही वृद्धि देखी जा रही है वह सरकार और राजनैतिक दलों के उन दावों की पूरी तरह से पोल ही खोलती नज़र आती है जिसमें उनके पूरे इलाके में शांति लौटने की लम्बी चौड़ी बातें की जा रही हैं. कवाल कांड के बाद से ही पूरे क्षेत्र में दोनों समुदायों के बीच अविश्वास इतना बढ़ गया है कि आने वाले समय में उसे बिना किसी राजनीति के कानून के कड़े अनुपालन के साथ ही सुधारा जा सकता पर जिस तरह से सभी राजनैतिक दल अपने तुच्छ लाभ के लिए विद्वेष को पूरी तरह से समाप्त करने के स्थान पर क्षणिक कारकों पर ही ध्यान देना शुरू कर चुके हैं उसके बाद वहाँ के आम निवासियों के लिए आना जाना भी दुश्वार होता जा रहा है जिससे आने वाले समय में इस पूरे क्षेत्र की कार्य क्षमता पर बुरा असर स्थायी रूप से पड़ सकता है.
आज की परिस्थितियों में सरकार के पास क्या विकल्प शेष हैं यदि उन पर सही तरह से पहले गौर कर लिया जाये और उसके बाद जो भी रणनीति सही ढंग से काम करने लायक हो केवल उस पर ही अमल लाया जाए. विद्वेष भड़कने के दो माह बीत जाने पर भी आज केवल राजनीति ही की जा रही है और सामजिक सुरक्षा को बढ़ाने के लिए अभी तक कोई प्रयास ही नहीं किये गए हैं क्योंकि हर गाँव और सड़क पर सेना और पुलिस तैनात नहीं की जा सकती है और स्थलीय परिस्थितियों को सुधारने के लिए शांति समितियों के गठन की कोई भी सही कवायद पुलिस या प्रशासन द्वारा शुरू नहीं की जा सकी है जबकि आज इसकी ही सबसे अधिक आवश्यकता है. स्थानीय स्तर पर यदि नेताओं को दूर करते हुए शांति समितियां बनायीं जाएँ और उनके माध्यम से सद्भाव बढ़ाने के प्रयास किये जाएँ तभी उनका सही लाभ पूरे समाज को मिल सकता है पर इस दिशा में अभी भी प्रगति की प्रतीक्षा ही की जा रही हैं और शायद सरकार और प्रशासन की तरफ से इस दिशा में ठोस रूप से कुछ सोचा भी नहीं जा रहा है.
इस क्षेत्रों में सरकार को अपने उन तेज़ तर्रार अधिकारियों की पोस्टिंग करनी चाहिए जो त्वरित निर्णय लेकर परिस्थितियों को सँभालने में सक्षम हैं क्योंकि किसी भी विपरीत परिस्थिति में जब भी निर्णय लेने की आवश्यकता होती है तो ज़िलों में तैनात अधिकारी निर्णय लेने के लिए लखनऊ की तरफ ताकना शुरू कर देते हैं जो किसी भी परिस्थिति में सही नहीं होता है और समय चूक जाने पर कोई भी कड़ा क़दम किसी भी तरह से सरकार या समाज की कोई मदद नहीं कर पाता है ? आज अधिकारियों को इस तरह की परिस्थितियों में काम करने आदत बनानी ही होगी क्योंकि राजनैतिक दलों के अलावा देश के दुश्मन की नज़रें भी इस बात पर ही अधिक रहा करती हैं कि आखिर क्यों न इस सामजिक विद्वेष का लाभ उठाकर भारत की प्रगति को रोका जा सके. धार्मिक आस्थाएं व्यक्तिगत जीवन में लाभकारी होती हैं पर जब उनका किसी भी तरह से समाज और राजनीति में दुरूपयोग किया जाने लगता है तो वह परिस्थिति पूरे समाज के साथ देश के लिए भी बहुत बड़ी समस्याएं लेकर ही सामने आती है. अखिलेश तो इस मामले में अक्षम ही साबित हुए हैं तो मुलायम को कम से कम अपने दल पर नियंत्रण रखकर अनावश्यक बयानबाज़ी को बंद कराना ही चाहिए जिससे दूसरे भी उसका लाभ न उठा सकें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
आज की परिस्थितियों में सरकार के पास क्या विकल्प शेष हैं यदि उन पर सही तरह से पहले गौर कर लिया जाये और उसके बाद जो भी रणनीति सही ढंग से काम करने लायक हो केवल उस पर ही अमल लाया जाए. विद्वेष भड़कने के दो माह बीत जाने पर भी आज केवल राजनीति ही की जा रही है और सामजिक सुरक्षा को बढ़ाने के लिए अभी तक कोई प्रयास ही नहीं किये गए हैं क्योंकि हर गाँव और सड़क पर सेना और पुलिस तैनात नहीं की जा सकती है और स्थलीय परिस्थितियों को सुधारने के लिए शांति समितियों के गठन की कोई भी सही कवायद पुलिस या प्रशासन द्वारा शुरू नहीं की जा सकी है जबकि आज इसकी ही सबसे अधिक आवश्यकता है. स्थानीय स्तर पर यदि नेताओं को दूर करते हुए शांति समितियां बनायीं जाएँ और उनके माध्यम से सद्भाव बढ़ाने के प्रयास किये जाएँ तभी उनका सही लाभ पूरे समाज को मिल सकता है पर इस दिशा में अभी भी प्रगति की प्रतीक्षा ही की जा रही हैं और शायद सरकार और प्रशासन की तरफ से इस दिशा में ठोस रूप से कुछ सोचा भी नहीं जा रहा है.
इस क्षेत्रों में सरकार को अपने उन तेज़ तर्रार अधिकारियों की पोस्टिंग करनी चाहिए जो त्वरित निर्णय लेकर परिस्थितियों को सँभालने में सक्षम हैं क्योंकि किसी भी विपरीत परिस्थिति में जब भी निर्णय लेने की आवश्यकता होती है तो ज़िलों में तैनात अधिकारी निर्णय लेने के लिए लखनऊ की तरफ ताकना शुरू कर देते हैं जो किसी भी परिस्थिति में सही नहीं होता है और समय चूक जाने पर कोई भी कड़ा क़दम किसी भी तरह से सरकार या समाज की कोई मदद नहीं कर पाता है ? आज अधिकारियों को इस तरह की परिस्थितियों में काम करने आदत बनानी ही होगी क्योंकि राजनैतिक दलों के अलावा देश के दुश्मन की नज़रें भी इस बात पर ही अधिक रहा करती हैं कि आखिर क्यों न इस सामजिक विद्वेष का लाभ उठाकर भारत की प्रगति को रोका जा सके. धार्मिक आस्थाएं व्यक्तिगत जीवन में लाभकारी होती हैं पर जब उनका किसी भी तरह से समाज और राजनीति में दुरूपयोग किया जाने लगता है तो वह परिस्थिति पूरे समाज के साथ देश के लिए भी बहुत बड़ी समस्याएं लेकर ही सामने आती है. अखिलेश तो इस मामले में अक्षम ही साबित हुए हैं तो मुलायम को कम से कम अपने दल पर नियंत्रण रखकर अनावश्यक बयानबाज़ी को बंद कराना ही चाहिए जिससे दूसरे भी उसका लाभ न उठा सकें.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
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