मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

१६ दिसंबर और समाज

                                   निर्भया के साथ हुए अत्याचार के एक बरस पूरा होने पर यदि हम अपने इस एक साल के पूरे सफ़र पर नज़र डालें तो एक बात साफ़ हो जाती है कि उस काली १६ दिसंबर के बाद से देश ने महिलाओं की सुरक्षा के लिए कड़े कानूनों की तरफ बढ़ने का जो संकल्प लिया था उसे पूरा भी कर दिया है पर उसके बाद जिस तरह से पूरे सामजिक वातावरण में बदलाव की आशाएं की जाने लगी थीं वे आज भी केवल आशाओं के स्तर तक ही सीमित हैं और पुरुष प्रधान समाज का रवैया कड़े कानूनों के बाद भी बदला हुआ सा नहीं लगता है क्योंकि इस वर्ष में सामान्य घटनाओं के अलावा जिस तरह से आसाराम और तेजपाल के साथ जस्टिस गांगुली पर भी उसी तरह के आरोप लगे तो उससे यही समझ में नहीं आ रहा कि आख़िर पुरुषों की मानसिकता में क्या कमी है जो उन्हें शिक्षित होने के बाद भी सामान्य व्यवहार नहीं करने देती और वे महिलाओं का सम्मान और उनकी गरिमा को अपनी स्वेच्छा से सुरक्षित नहीं रख पाते हैं ? वे कौन से बड़े कारण हैं जो आज भी देश के हर हिस्से में कड़े कानूनों के बाद भी सुरक्षा की भावना नहीं जगा पाते हैं ?
                                 यदि गौर से देखा जाये तो इस पूरी कवायद में सिर्फ एक बात ही सामने आती है कि कहीं न कहीं से हम समाज के रूप में पूरी तरह से विफल होते जा रहे हैं जिसमें कहने को तो महिलाओं को पुरुषों के बराबर हक़ मिला हुआ है पर आज भी हमारे देश के अधिकांश घरों में लड़कों की परवरिश लड़कियों को दबाकर ही की जाती है और बचपन से ही लड़के यह देखकर बड़े होते हैं कि घर में उसकी बहन को किस तरह से दबाकर रखा जाता है और बात बात पर उसे नीचा दिखा कर लड़कों को बेहतर साबित करने की कोशिशें की जाती हैं ? इस तरह की दोहरी मानसिकता के साथ जीते हुए जब ये लड़के बड़े होकर समाज में आते हैं तो उन्हें सड़कों पर चलती हुई या विभिन्न क्षेत्रों में बढ़कर उन्हें चुनौती देती हुई लड़कियाँ कहीं से भी अपनी प्रतिद्वंदी के स्थान पर कमज़ोर ही दिखाई देती हैं और उनके अंदर भरी गयी श्रेष्ठ होने की यह भावना उन्हें बहुत बार महिलाओं के ख़िलाफ़ इस तरह के अत्याचारों को करने के लिए उकसाने का काम भी किया करती है.
                                 यदि आज भी हमें अपने समाज में महिलाओं की स्थिति को वास्तव में सुधारना है तो उसके लिए हमें उसकी पहली सीधी के रूप में अपने घरों की लड़कियों को उनके हक़ और उचित सम्मान के बारे मन सोचना ही होगा और केवल लड़कों पर ही ध्यान देने और उनकी हर सही ग़लत बात को मानकर आगे बढ़ने की हर कोशिश को भी यहीं पर विराम देना होगा ? आज हम अपने घरों की बैठकों में इस बात पर अधिक ज़ोर देते हैं कि समाज बहुत बदल गया है और पहले ऐसा नहीं होता था पर हम यह भूल जाते हैं कि जब हम अपने घरों में लड़कों को सही शिक्षा के साथ आगे नहीं बढ़ा पा रहे हैं तो समाज में जाकर हमारे लड़के कैसे समाज में काम कर रही लड़कियों को सही सम्मान दे सकेंगे ? अब भी समय है और इसके लिए सभी को मिलजुल कर सामाजिक और नैतिक मूल्यों की लम्बी चौड़ी बातें करने के स्थान पर कुछ ठोस करने के बारे में सोचना ही होगा जिससे समाज में वास्तविक परिवर्तन भी दिखायी दे सके और देश में महिलाओं की स्थिति को सुधारा भी जा सके.        
  
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