पिछले वर्ष तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह द्वारा टाट्रा ट्रकों को सेना को बेचने के लिए १४ करोड़ रूपये की घूस की पेशकश करने की बात सामने आने पर सरकार ने इन ट्रकों की खरीद पर अविलम्ब रोक लगा दी थी और इस मामले में जांच भी चालू की गयी थी जिससे इसे बनाने वाली चेक कम्पनी से किसी भी तरह की खरीद पर पाबन्दी भी लगा दी गयी थी, देखने में तो यह निर्णय एक तरह से कम्पनी के हितों पर चोट करने वाला था पर उससे हर तरह की खरीद पर रोक के चलते अब सेना में शामिल इसके ६,५०० ट्रकों के कल पुर्ज़ों का संकट सामने आने लगा है जिससे सेना के काफिले के आवागमन पर भी आने वाले समय में बुरा असर पड़ सकता है. इस समस्या से निपटने के लिए अब सरकार ने इन ट्रकों को सीधे कम्पनी से ही खरीदने की तरफ क़दम बढ़ाते हुए बीएम्ईएल के माध्यम से सेना को इस बात की अनुमति दे दी है जिससे इनकी खरीद में कोई अनियमितताएं आसानी से न हो सकें और सेना के इस ट्रक से बनने वाले विशाल बेड़े को भी पूरी दक्षता के साथ उपयोग में लाया जा सके. इस पूरे मामले में समस्या केवल घूस की थी वरना सेना के लिए ये पूरी तरह से अनुकूल वाहन है.
इस तरह के किसी भी मसले पर देश में जिस तरह से राजनैतिक प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं सम्भवतः उनकी आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि जनरल सिंह के खुलासे के बाद सरकार ने केवल राजनैतिक दबाव के चलते ही इस कम्पनी से खरीद पर रोक लगा दी थी जबकि वर्तमान में सेना द्वारा उपयोग में लाये जा रहे इन वाहनों के लिए कल पुर्ज़ों की आवश्यकता तो पड़नी ही थी तो उस स्थिति में केवल नए ट्रकों की खरीद पर रोक लगाते हुए आवश्यक सामान की खरीद को नहीं रोकना चाहिए था क्योंकि कोई भी समझौता वाहन के साथ एक निश्चित अवधि तक उनके कल पुर्ज़ों की आपूर्ति की सुरक्षा भी प्रदान करता है तो उस स्थिति में आख़िर इसको रोकने का क्या औचित्य था पर जब बात रक्षा और दलाली की हो तो देश की जनता आसानी से यह मान लेती है कि अवश्य ही इसमें गड़बड़ी की गयी होगी. १९८७ में वीपी सिंह अपने विद्रोही तेवरों से यह स्पष्ट कर पाने में सफल रहे थे कि बोफोर्स में ६४ करोड़ की दलाली दी गयी है जबकि खुद उनकी और बाद में अटल सरकार को भी इसमें कुछ भी नहीं मिला था और आज भी उसको लेकर राजनैतिक हल्ला मचाने में हमारे नेता पीछे नहीं रहते हैं जबकि कारगिल की घुसपैठ को बोफोर्स तोपों के कारण ही जल्दी समाप्त करने में सहायता मिली थी.
रक्षा सौदों में दलाली एक वैश्विक बीमारी है और जब हम भी किसी कम्पनी द्वारा स्थापित किसी एजेंट के माध्यम से रक्षा सौदे करते हैं तो उनका कमीशन भी खरीदने वाले को ही देना पड़ता है और विभिन्न देशों के साथ अपने प्रतिनिधियों को भेजने के स्थान पर ये कम्पनियां अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जो इस तरह की पूरी खरीद में बिचौलिए का काम करते हैं जिसे हम घूस कहते हैं वह एक आम चलन है. उसके लिए ये कम्पनियां बाकायदा के बजट भी रखती हैं जो इन प्रतिनिधियों को दिया जाता है और सौदा हो जाने पर उसका पूर्व नियत प्रतिशत भी एजेंट को दिया जाता है. इस पूरे मामले से बचने और भारी खरीद में शामिल भारत के लिए अब यही अच्छा होगा कि वह रक्षा क्षेत्र के लिए एक सरकारी क्रय उपक्रम बनाये जो स्वयं ही इस तरह की खरीदों पर ध्यान रख सके और देश की आपातकालीन और तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार कम अवधि की सूचना पर भी खरीद कर पाने की सीमित अधिकारों से भी लैस हो जिससे सेना की उन ज़रूरतों का भी ध्यान रखा जा सके. सीधे कम्पनी से खरीद किये जाने से जहाँ रक्षा मंत्रालय और सेना के साथ संसदीय समिति का दखल हो जायेगा वहीं बिचौलियों के माध्यम से होने वाली हानि को भी रोका जा सकेगा.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
इस तरह के किसी भी मसले पर देश में जिस तरह से राजनैतिक प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं सम्भवतः उनकी आवश्यकता नहीं होती है क्योंकि जनरल सिंह के खुलासे के बाद सरकार ने केवल राजनैतिक दबाव के चलते ही इस कम्पनी से खरीद पर रोक लगा दी थी जबकि वर्तमान में सेना द्वारा उपयोग में लाये जा रहे इन वाहनों के लिए कल पुर्ज़ों की आवश्यकता तो पड़नी ही थी तो उस स्थिति में केवल नए ट्रकों की खरीद पर रोक लगाते हुए आवश्यक सामान की खरीद को नहीं रोकना चाहिए था क्योंकि कोई भी समझौता वाहन के साथ एक निश्चित अवधि तक उनके कल पुर्ज़ों की आपूर्ति की सुरक्षा भी प्रदान करता है तो उस स्थिति में आख़िर इसको रोकने का क्या औचित्य था पर जब बात रक्षा और दलाली की हो तो देश की जनता आसानी से यह मान लेती है कि अवश्य ही इसमें गड़बड़ी की गयी होगी. १९८७ में वीपी सिंह अपने विद्रोही तेवरों से यह स्पष्ट कर पाने में सफल रहे थे कि बोफोर्स में ६४ करोड़ की दलाली दी गयी है जबकि खुद उनकी और बाद में अटल सरकार को भी इसमें कुछ भी नहीं मिला था और आज भी उसको लेकर राजनैतिक हल्ला मचाने में हमारे नेता पीछे नहीं रहते हैं जबकि कारगिल की घुसपैठ को बोफोर्स तोपों के कारण ही जल्दी समाप्त करने में सहायता मिली थी.
रक्षा सौदों में दलाली एक वैश्विक बीमारी है और जब हम भी किसी कम्पनी द्वारा स्थापित किसी एजेंट के माध्यम से रक्षा सौदे करते हैं तो उनका कमीशन भी खरीदने वाले को ही देना पड़ता है और विभिन्न देशों के साथ अपने प्रतिनिधियों को भेजने के स्थान पर ये कम्पनियां अपने क्षेत्र के प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जो इस तरह की पूरी खरीद में बिचौलिए का काम करते हैं जिसे हम घूस कहते हैं वह एक आम चलन है. उसके लिए ये कम्पनियां बाकायदा के बजट भी रखती हैं जो इन प्रतिनिधियों को दिया जाता है और सौदा हो जाने पर उसका पूर्व नियत प्रतिशत भी एजेंट को दिया जाता है. इस पूरे मामले से बचने और भारी खरीद में शामिल भारत के लिए अब यही अच्छा होगा कि वह रक्षा क्षेत्र के लिए एक सरकारी क्रय उपक्रम बनाये जो स्वयं ही इस तरह की खरीदों पर ध्यान रख सके और देश की आपातकालीन और तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार कम अवधि की सूचना पर भी खरीद कर पाने की सीमित अधिकारों से भी लैस हो जिससे सेना की उन ज़रूरतों का भी ध्यान रखा जा सके. सीधे कम्पनी से खरीद किये जाने से जहाँ रक्षा मंत्रालय और सेना के साथ संसदीय समिति का दखल हो जायेगा वहीं बिचौलियों के माध्यम से होने वाली हानि को भी रोका जा सकेगा.
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