आप की सरकार बनने और उसके द्वारा अपने चुनावी घोषणा पत्र में बिजली से सम्बंधित किये गए वायदों पर जिस तरह से दिल्ली के विद्युत् नियामक आयोग के अध्यक्ष पीडी सुधाकर ने स्पष्ट शब्दों में यह कहा है कि सरकार बिजली की दरों को नियंत्रित नहीं कर सकती है वह आप की नवगठित सरकार और अरविन्द केजरीवाल के लिए एक ऐसी समस्या लेकर सामने आया है जिससे उनके लिए कुछ भी ठोस कर पाना आसान नहीं रहने वाला है. जिस तरह से आप ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में बिजली की दरें आधी करने की बात कही थी और उसे जनता का इस बात पर भी व्यापक समर्थन मिला था और खुद अरविन्द ने भी कटे हुए बिजली कनेक्शनों को दोबारा जोड़ने की मुहिम भी चलायी थी तो अब उनके लिए इस परिस्थिति को सम्भालना थोडा कठिन ही होने वाला है. सुधाकर ने स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि यह कानून से जुड़ा मामला है और दिल्ली सरकार इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती है और आज के समय यदि उसे बिजली सस्ती करनी है तो बिजली कम्पनियों को सब्सिडी देने की तरफ उसे सोचना ही होगा.
अपने आप में ही केजरीवाल सरकार के लिए अब यह बड़ी चुनौती के रूप में सामने आने वाली है क्योंकि भाजपा के कथित मॉडल सुशासित राज्य गुजरात में भी दिल्ली से बिजली मंहगी है फिर भी उसने केवल वोटों की राजनीति करने के लिए तीस प्रतिशत बिजली सस्ती करने का अव्यवहारिक वायदा दिल्ली की जनता से किया था ? आज जिस तरह से लागत में कीमतों की बढ़ोत्तरी का सीधा असर बिजली की कीमतों पर भी दिखायी दे रहा है तो उस स्थिति में किसी भी सरकार के लिए अपने काम को सही ढंग से करते हुए बिजली सस्ता करना एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में ही है और जब दिल्ली में एक नए युग का आरम्भ हो रहा है तो केजरीवाल व्यवहारिकता को अपनाते हैं या फिर केवल अपने वायदों को पूरा करने के लिए बिजली क्षेत्र को सब्सिडी देते हैं यह देखने का विषय ही होगा. दिल्ली सरकार बिजली कम्पनियों में ४९ प्रतिशत की हिस्सेदार है तो वह निजी कम्पनियों के मामले में किस तरह से काम करती है यह भी जनता के साथ बिजली क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए उत्सुकता का विषय होगा.
अच्छा हो कि दिल्ली और केजरीवाल इस बात को समझने का प्रयास करें कि लागत मूल्य से कम पर कोई भी सामान देने का मतलब सीधे तौर पर जनता के अन्य संसाधनों पर रोक लगाना ही होता है क्योंकि जब तक लोगों को यह समझ नहीं आएगा तब तक आर्थिक मुद्दों पर इस तरह की घटिया राजनीति तो होती ही रहेगी. केजरीवाल अब खुद दिल्ली सरकार हैं तो उनके पास बिजली कम्पनियों के लिए जो भी सुझाव और नया फार्मूला है उस पर सबकी नज़रें टिकी हुई है क्योंकि जब तक वे इसी स्थिति में इस क्षेत्र को बिना नयी सब्सिडी दिए यदि कोई नया तरीका निकाल लेते हैं तो उससे पूरे परिदृश्य को बदला जा सकता है. फिलहाल सुधाकर का यह बयान केजरीवाल और बिजली कम्पनियों के लिए बड़ा सर दर्द बनकर सामने आने वाला है क्योंकि जिस तरह से पूरे मसले पर राजनीति हो रही है उससे किसी को भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है और कानून ने नियामक को यह अधिकार दे रखे हैं कि वह उपभोक्ताओं और कम्पनियों के बीच में सही ढंग से सामंजस्य बिठाने का काम करे. देश को अब राजनीति से आगे बढ़कर सोचने का समय आ गया है और हम अपनी प्रगति को खुद ही रोकने में सम्भवतः दुनिया में पहले स्थान पर ही हैं.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
अपने आप में ही केजरीवाल सरकार के लिए अब यह बड़ी चुनौती के रूप में सामने आने वाली है क्योंकि भाजपा के कथित मॉडल सुशासित राज्य गुजरात में भी दिल्ली से बिजली मंहगी है फिर भी उसने केवल वोटों की राजनीति करने के लिए तीस प्रतिशत बिजली सस्ती करने का अव्यवहारिक वायदा दिल्ली की जनता से किया था ? आज जिस तरह से लागत में कीमतों की बढ़ोत्तरी का सीधा असर बिजली की कीमतों पर भी दिखायी दे रहा है तो उस स्थिति में किसी भी सरकार के लिए अपने काम को सही ढंग से करते हुए बिजली सस्ता करना एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में ही है और जब दिल्ली में एक नए युग का आरम्भ हो रहा है तो केजरीवाल व्यवहारिकता को अपनाते हैं या फिर केवल अपने वायदों को पूरा करने के लिए बिजली क्षेत्र को सब्सिडी देते हैं यह देखने का विषय ही होगा. दिल्ली सरकार बिजली कम्पनियों में ४९ प्रतिशत की हिस्सेदार है तो वह निजी कम्पनियों के मामले में किस तरह से काम करती है यह भी जनता के साथ बिजली क्षेत्र के विशेषज्ञों के लिए उत्सुकता का विषय होगा.
अच्छा हो कि दिल्ली और केजरीवाल इस बात को समझने का प्रयास करें कि लागत मूल्य से कम पर कोई भी सामान देने का मतलब सीधे तौर पर जनता के अन्य संसाधनों पर रोक लगाना ही होता है क्योंकि जब तक लोगों को यह समझ नहीं आएगा तब तक आर्थिक मुद्दों पर इस तरह की घटिया राजनीति तो होती ही रहेगी. केजरीवाल अब खुद दिल्ली सरकार हैं तो उनके पास बिजली कम्पनियों के लिए जो भी सुझाव और नया फार्मूला है उस पर सबकी नज़रें टिकी हुई है क्योंकि जब तक वे इसी स्थिति में इस क्षेत्र को बिना नयी सब्सिडी दिए यदि कोई नया तरीका निकाल लेते हैं तो उससे पूरे परिदृश्य को बदला जा सकता है. फिलहाल सुधाकर का यह बयान केजरीवाल और बिजली कम्पनियों के लिए बड़ा सर दर्द बनकर सामने आने वाला है क्योंकि जिस तरह से पूरे मसले पर राजनीति हो रही है उससे किसी को भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है और कानून ने नियामक को यह अधिकार दे रखे हैं कि वह उपभोक्ताओं और कम्पनियों के बीच में सही ढंग से सामंजस्य बिठाने का काम करे. देश को अब राजनीति से आगे बढ़कर सोचने का समय आ गया है और हम अपनी प्रगति को खुद ही रोकने में सम्भवतः दुनिया में पहले स्थान पर ही हैं.
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