मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

चुनाव और जन भावनाएं

                                                       दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सुनियोजित जीत को जिस तरह से कुछ लोग यह कहकर कम आंक रहे हैं कि यह अन्ना या किसी अन्य कारणों से आगे बढ़ी हुई पार्टी है वे यह भूल रहे हैं कि देश में पहले ही बहुत बार बड़े बड़े जनांदोलन हुए हैं पर उनका इतना बड़ा राजनैतिक परिणाम केवल १९७७ में ही दिखायी दिया था. इस बार जिस तरह से कॉंग्रेस के ख़िलाफ़ पूरा माहौल दिखायी दे रहा है यदि गौर से देखा जाये तो यह वास्तव में एक राजनैतिक बाज़ी का पलटना ही है और इसमें दिल्ली में आप ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है जिस कारण से भी आज जो कुछ भी दिखायी दे रहा है वह बहुत अलग है. यह सही है कि देश में व्यापक स्तर पर की जाने वाली परंपरागत राजनीति में अब बदलाव करने का समय आ गया है और यदि इस समय पुराने टोटकों को आज़माने के प्रयास में कॉंग्रेस को धुल चाटनी पड़ी है वहीं यह भाजपा के लिए भी खतरे की घंटी से कम नहीं है क्योंकि जिस तरह से पूरे परिदृश्य में आम आदमी पार्टी ने अपने को स्थापित किया है वह पूरे देश में भी २०१४ के चुनावों में बदलाव की बयार लाने के उद्देश्य से प्रत्याशी उतार सकती है जो दिल्ली की तरह उसके वोट बैंक में ही सेंध लगाने वाली बात होगी.
                                                     इन चुनावों से एक बात और भी स्पष्ट हुई है कि जब भी देश की जनता को बदलाव करना होता है वह इतनी ही आसानी से चुपके से बरसों से जमी हुई सत्ता को उखड कर नए लोगों को वहाँ पर बैठा देती है फिर भी पूरे देश में जिस तरह से अब सकारात्मक राजनीति और चुनाव का यह सुखद झोंका आया है इसमें जातिवादी और धर्म पर आधारित राजनीति को एक बड़ा झटका ही लगा है क्योंकि इससे लोगों की सहभागिता बढ़ने के स्पष्ट संकेत भी मिल रहे हैं. देश में यदि मत प्रतिशत और भी सुधर जाये तो उससे देश के राजनैतिक दलों पर और अधिक दबाव डाला जा सकता है क्योंकि अभी तक अल्पमत के भरोसे अपने को बहुमत में बताकर राज करने वाले दलों के लिए जनता का घरों से निकल कर वोट डालना अपने आप में बहुत बड़ा संकेत है. कांग्रेस ने जिस तरह से अपनी हार को स्वीकार किया है वह उचित ही है क्योंकि उसके पास अब अपने गिरते हुए प्रदर्शन को सुधारने का आम चुनावों से पहले यह अंतिम अवसर है और यदि अब भी उसकी तरफ से यही राजनीति जारी रखी गयी तो ७७, ८९, ९६ जैसे बदलाव को रोकना उसके लिए मुश्किल ही होने वाला है.
                                                    किसी भी आंदोलन से निकली हुई राजनैतिक धारा को संभाल कर रख पाना अपने आप में बहुत बड़ी चुनौती होती है पर जिस तरह से आप ने अपने को स्थापित किया है तो उसके बाद यह ख़तरा उस पर भी मंडरा सकता है क्योंकि आज तेलगु देशम, असोम गण परिषद कहाँ और किस हालात में हैं सभी को पता है. इन चुनावों में एक सबसे बड़ा बदलाव यह भी दिखा है कि हर लगभग जगह पर बसपा का वोट प्रतिशत भी काफी हद तक घटा है और वह पूरा का पूरा भाजपा के खाते में ही गया है जिससे यही लगता है कि पिछले चुनावों में भाजपा से छिटके हुए जो भी लोग भाजपा की कमज़ोर सम्भावनाओं के चलते उससे दूर हुए थे इस बार उसके साथ वापस आ खड़े हुए हैं तभी सभी जगहों पर जातिवादी राजनीति करने में माहिर बसपा के लिए यह चुनाव अच्छे साबित नहीं हुए हैं और यदि यही ट्रेंड चलता रहा तो इस बार किसी समय भाजपा से छिटका वोट उसके पास जाने से उसका मत प्रतिशत उसके प्रभाव वाले क्षेत्रों में काफी उछाल ले सकता है पर स्थानीय कारणों से वह कितनी सीटें दिलवा पायेगा यह तो आने वाला समय ही बतायेगा फिलहाल दिल्ली में भाजपा और आप द्वारा पीछे हटकर यदि सरकार नहीं बनायीं जाती है तो एक बार फिर से चुनाव होना देश के लोकतंत्र के लिए बहुत अच्छा होने वाला है क्योंकि तब जोड़-तोड़ से पूरी तरह से मुक्ति मिल जाने लायक स्थिति सामने आ सकती है.        
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