मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 16 जनवरी 2014

राजनैतिक परिस्थितियां और देश

                                  देश में इस वर्ष होने वाले आम चुनावों के पहले ही जिस तरह से विभिन्न दल एक दूसरे पर आरोप लगाने में लगे हुए हैं और साथ ही वे अपनी अच्छाइयों के स्थान पर दूसरे की कमियों के बारे में जिस तरह से इंगित कर रहे हैं उससे यही लगता है कि हमारे नेताओं ने इस बार के चुनाव में भी सुशासन के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की अपनी इच्छाओं का परित्याग कर ही दिया है और वे किसी भी तरह से सच और झूठ का सहारा लेकर केवल अपनी लोकसभा सीटों को बढ़ाने की जुगत करते ही दिखायी दे रहे हैं. इस वर्ष के चुनाव में जो सबसे अप्रत्याशित माहौल बन रहा था सम्भवतः अपनी सीमित सोच के कारण आम आदमी पार्टी उसका व्यापक लाभ ही न उठा पाये क्योंकि जिस तरह से नयी उभरती पार्टियों में लोगों को सदस्य बनाकर अपनी उपस्थिति दिखाने की होड़ मची रहती है वह भी उसी का शिकार बन चुकी है और अब जिस तरह से अतिमहत्वाकांक्षी लोगों के उसमें शामिल होने या दूसरे दलों द्वारा अपने नेताओं को वहाँ पर प्लांट किये जाने की पूरी सम्भावनाएं भी सामने आने लगी हैं वह आप के लिए बहुत ही घातक साबित होने वाली है.
                                     किसी भी तेज़ी से उभरते नए राजनैतिक दल के सामने जो चुनौतियाँ आती हैं वे आज आप के सामने भी आ रही हैं और दुःख की बात है कि अपने काडर का ढोल पीटने वाली यह पार्टी भी इस तरह की परिस्थितियों के लिए किसी भी उपाय को बचा कर नहीं रख पायी है जिस कारण से भी पहले से स्थापित नेताओं की आँखों में चुभने के कारण आज इसके लिए अपने को बचाना और भी मुश्किल ही होने वाला है. देश में बड़े आधार वाले दलों के अस्तित्व को नेता अपने बड़बोलेपन के कारण जिस तरह से एकदम से नकार दिया करते हैं तो शायद वे यह भूल जाते हैं कि इस देश में एक स्थापित और सशक्त लोकतंत्र की जड़ें बहुत ही मज़बूत हैं और उसकी असली रीढ़ बड़े राष्ट्रीय या छोटे क्षेत्रीय दलों के द्वारा ही बनायीं जाती है. मेनका गांधी जैसी नेता भी आज ऐसा दावा करती हैं कि कॉंग्रेस को कोई गांधी नहीं बचा सकता है तो शायद वे यह भूल जाती हैं कि १९८३ के बाद से उनके राष्ट्रीय संजय मंच में किस तरह से गुंडे और मवाली अचानक से शामिल हो गए थे आज उनका मंच तो कहीं नहीं है पर वे अपने निजी विरोध के चलते कॉंग्रेस से दूर और भाजपा के साथ हैं.
                                  १९७७, ८९ और फिर १९९६ में सत्ता से बाहर होने के बाद कॉंग्रेस और ८४ के चुनावों में तात्कालिक कारणों से केवल दो सीटों तक सिमटने वाली भाजपा भी पूरे देश में अपनी उपस्थिति को बनाये ही रखे हुए हैं तो नेताओ द्वारा इस तरह की बातें करना कि अमुक दल पूरी तरह से साफ़ हो जायेगा या कोई अन्य दल पूरी विजय प्राप्त कर लेगा केवल उनके कार्यकर्ताओं के मनोबल को बढ़ाने के लिए ही कहा जाता है. दिल्ली में इतनी बुरी तरह से परास्त होने वाली कॉंग्रेस के पास आज भी अच्छा ख़ासा वोट प्रतिशत बचा हुआ है तो कोई इस बात को कैसे कह सकता है कि किसी का उभार किसी के लिए घातक हो सकता है ? देश के लोकतंत्र में आज इतनी परिपक्वता आ चुकी है कि इस तरह की परिस्थितियों का सामना वह आसानी से कर सकता है और देश के सामने आने वाली आंतरिक और बाहरी चुनौतियों का सामना भी वह आसानी से करने में सक्षम ही है. चिंता की बात केवल यह ही है कि अपने दल को आगे बढ़ाने के लिए ये नेता जिस तरह के अनर्गल प्रमाणों का सहारा लेना शुरू कर देते हैं उसकी कोई आवश्यकता नहीं होती है और जनता को कम कर आंकना किसी भी दल के लिए के बहुत बड़ा सरदर्द कभी भी हो सकता है.    
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