मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

राहुल और कॉंग्रेस

                                  लम्बे समय से कांग्रेसियों से अधिक भाजपाइयों द्वारा की जा रही मांग को नज़रअंदाज़ करते हुए जिस तरह से सोनिया गांधी ने राहुल को आगामी लोकसभा चुनावों में पीएम पद का प्रत्याशी बनाये जाने से इंकार कर दिया उससे भाजपा की रणनीति को अवश्य ही धक्का लगा है साथ ही उन चाटुकार नेताओं के लिए एक तरह से सोनिया का यह स्पष्ट संदेश भी है कि हमेशा की तरह पार्टी ने अपने रुख में कोई परिवर्तन नहीं किया है और आने वाले समय में भी उसमे कोई अंतर नहीं आने वाला है. अभी तक की स्थापित परम्परा के अनुसार कॉंग्रेस चुनाव के बाद ही सरकार बनाने की स्थिति में संसदीय दल द्वारा उसके नेता का चुनाव करती रही है पर इस बार जिस तरह से भाजपा ने नरेंद्र मोदी को अपना उम्मीदवार बनाया और मोदी ने स्पष्ट रूप से राहुल पर हमले करने शुरू कर दिए उसके बाद से कॉंग्रेस भी इस बात पर विचार करने लगी थी कि आवश्यकता पड़ने पर पीएम पद का प्रत्याशी घोषित किया जा सकता है.
                                           गांधी परिवार के साथ जुड़े और अन्य नेताओं को भी यह लगने लगा था कि इस बार यह किया भी जा सकता है क्योंकि विधान सभा चुनावों के बाद अपने सम्बोधन में सोनिया ने यह कहा भी था कि समय आने पर प्रत्याशी घोषित किया जायेगा पर उन्होंने अंतिम समय में जिस तरह से अपने अधिकारों का उपयोग कर यह स्पष्ट कर दिया है कि राहुल को वर्तमान लोकसभा चुनावों में केवल अभियान समिति का दायित्व सौंपा जा रहा है और समय आने पर कॉंग्रेस संसदीय दल पीएम पद के लिए नाम तय करेगा. वैसे भी देश में सभी जानते हैं कि अब कॉंग्रेस के दिल्ली में सरकार बनाने की स्थिति में राहुल को ही आगे बढ़ाया जा सकता है पर सोनिया की चुनावी सूझबूझ को समझने वाले अभी भी इस बात पर कुछ कहने से बच रहे हैं क्योंकि जिस तरह से भारत में हर व्यक्ति देश का पीएम बनने का सपना देखता है फिर भी २००४ में सोनिया ने खुद कॉंग्रेस की कमान सँभालते हुए जीत मिलने पर जिस तरह से मनमोहन सिंह को आगे बढ़ाया वैसी मिसाल देश के इतिहास में सम्भवतः अब देखने को नहीं मिलने वाली है.
                                           पार्टी आधारित राजनीति करने वाले हर नेता को यही लगता है कि उसका दल ही सदैव सत्ता में बना रहे पर उसके लिए जिस स्तर पर प्रयास किये जाने की आवश्यकता होती है वह कहीं से भी नहीं दिखायी देती है. इस पूरे प्रकरण में सोनिया ने जिस तरह से राहुल का बचाव किया वह एक कुशल नीति के तहत किया गया लगता है क्योंकि अभी भी जिस तरह से कॉंग्रेस के खिलाफ माहौल पूरे देश में दिख रहा है उस स्थिति में पार्टी की स्थापित परम्पराओं से आगे जाकर राहुल को उमीदवार बनाये जाने से यह संदेश भी जा सकता था कि अब सोनिया किसी भी तरह से उन्हें पीएम बनाना चाहती हैं जबकि सच यह है कि २००४ के बाद २००९ में उनके पास यह अवसर भी था और राहुल को आसानी से आगे किया जा सकता था पर उन्होंने भारतीय राजनीति के विपरीत जिस तरह से मनमोहन सिंह में अपनी आस्था बनाये रखी है वह भी अपने आप में अनूठी ही है. आम तौर पर किसी भी नेता के अप्रासंगिक हो जाने पर भारतीय राजनीति में उनको हाशिये पर डालने की परंपरा रही है और जिस स्तर पर पदों पर बैठने के लिए बड़े नेताओं में सर फुटौव्वल की नौबत आ जाती है वह किसी से भी छिपी नहीं है. सोनिया ने कॉंग्रेस को जिस स्तर पर बांध कर रखा है अब वह ज़िम्मेदारी राहुल पर आने वाली है फिर राजनीति में वंशवाद भारतीय पैमाने पर बेईमानी ही लगता है क्योंकि लगभग हर बड़े नेता के परिवार के लोग आज भी अपने आप राजनीति में आते जा रहे हैं और वह भी देश के आज के स्थापित लोकतान्त्रिक तरीकों से तो यह मुद्दा उठाने वाले एक तरह से देश की जनता पर ही सवालिया निशान लगाते हैं.         
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