मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 18 जनवरी 2014

दिल्ली राज्य या नगर निगम ?

                                     दिल्ली जैसे छोटे राज्य को जिस तरह से केवल राजनैतिक कारणों से ही राज्य का दर्ज़ा दिया गया है सम्भवतः उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी पर कॉंग्रेस और भाजपा ने केवल अपनी राजनैतिक ज़रूरतों को पूरा करने और केवल मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाये रखने के लिए इस बात से कभी कोई परहेज नहीं किया कि ऐसे भी राज्य न बन जाएँ जो आने वाले समय में पूरी राजनैतिक और प्रशासनिक व्यवस्था के लिए ही एक चुनौती हों ? जब दिल्ली को राज्य का दर्ज़ा मिला था तब भी इस बात पर गहन मंथन किया गया था कि आखिर दिल्ली पुलिस किस के अंतर्गत काम करे तब बीच का रास्ता यह कहते हुए निकला गया था कि दिल्ली चूंकि देश की राजधानी है और यहाँ पर हर तरह की राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियां होती रहती हैं तो उस स्थिति में इसे गृह मंत्रालय के अंतर्गत ही रखा जाना उचित होगा क्योंकि तब महत्वपूर्ण अवसरों पर सुरक्षा के साथ दोहरी पुलिस व्यवस्था से भी बचा जा सकेगा पर आज इस पूरे मसले में जो नौटंकी हो रही है उससे यही लगता है कि दिल्ली को राज्य बनाना ही गलत निर्णय था ?
                                  ऐसा नहीं है कि दिल्ली पुलिस कहीं से भी किसी मामले में कमज़ोर है पर जिस तरह से भारतीय पुरुष मानसिकता कहीं पर भी अकेली लड़की या महिला को देखकर उसका सम्मान करने के बारे में सोचना ही नहीं चाहती है उसके बाद यह समस्या पुलिसिंग की न होकर सामजिक अधिक बन जाती है. निर्भया मामले के समय पता नहीं कितने ही मामले ऐसे भी सामने आये थे जिनमें प्रदर्शन करने के बाद लौटते हुए लड़कों और पुरुषों में लड़कियों और महिलाओं से बाद सलूकी की थी, देश में चाहे जितने भी कड़े कानून क्यों न बन जाएँ जब तक इस मानसिकता को नहीं सुधारा जायेगा तब तक अकेली पुलिस या कोई भी सरकार क्या कर सकती है ? आज दिल्ली की कमान सँभालने के बाद जिस तरह से अरविन्द केजरीवाल को अब दिल्ली पुलिस अपने नियंत्रण में चाहिए तो वह इतना आसान भी नहीं है क्योंकि इसके लिए गृह मंत्रालय के प्रस्ताव पर मंत्रिमंडल की मंज़ूरी और फिर दिल्ली राज्य को गठित किये जाने की अधिसूचना में संशोधन आवश्यक होगा और आज की परिस्थिति में केंद्र सरकार जब चुनावी मोड़ में आ चुकी है तो वह इतने बड़े निर्णय लेने में कितनी दिलचस्पी लेगी यह भी देखने का विषय होगा.
                                    सैद्धांतिक स्तर पर दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अंतर्गत लाए जाने की बात तो सभी राजनैतिक दल किया करते हैं पर जब भी कुछ करने की ज़रुरत होती है तब सभी पीछे हट जाते हैं क्योंकि दिल्ली में केंद्रीय सरकार और राज्य की सरकार में यह कभी भी मतभेद का बड़ा कारण बन सकती है. अब नेताओं को इस बात पर अधिक विचार करने की आवश्यकता है कि आख़िर किस तरह से इस समस्या का हल निकला जाये क्योंकि अगर सामान्य प्रदर्शन के रूप में देखा जाये तो दिल्ली पुलिस का प्रदर्शन अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर ही है फिर भी जनता को जिस स्तर पर सुरक्षा महसूस होनी चाहिए अभी भी वह उससे दूर ही है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की आपरधिक गतिविधियों पर नियंत्रण के लिए क्या हर थाने में अलग से विवेचना अधिकारी तैनात कर दिल्ली सरकार की शिकायत को दूर किया जा सकता है और ख़ुफ़िया और अन्य मामलों को सीधे गृह मंत्रालय के अंतर्गत रखा जा सकता है क्योंकि आज भी केंद्रीय एजेंसियां अपने काम को विभिन्न राज्यों में बखूबी निभा रही हैं. दिल्ली का मामला बहुत ही पेचीदा है क्योंकि नेता इसका कोई हल निकलना ही नहीं चाहते हैं और केजरीवाल के मंत्रियों को सबसे बुरा इसी बात का लगा कि अन्य राज्यों में पुलिस मंत्रियों की चापलूसी करती नज़र आती है और दिल्ली में उसकी हिम्मत इतनी है कि वह मंत्रियों से बहस भी कर सकती है ? बड़ी बातें करने और वर्तमान अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों में दिल्ली को अस्थिर राज्य सरकार के भरोसे छोड़ना कहाँ तक उचित है यह सभी जानते हैं पर राजनीति में अपने में सुधार करने के स्थान पर दूसरों पर उंगली उठाना अधिक सुविधाजनक होता है. 
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