मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 21 जनवरी 2014

दिल्ली-केजरीवाल और कानून

                                  देश के इतिहास में सम्भवतः पहली बार ऐसा देखने को मिल रहा है कि एक आधे अधूरे बिना मन से केवल राजनैतिक कारणों से बनाये गए राज्य दिल्ली के सीएम अरविन्द केजरीवाल व्यवस्था के खिलाफ धरने पर बैठे हुए हैं और बाकी दल उन पर इस तरह से हमला करने में लगे हुए हैं जैसे वे कोई बड़े अपराधी हों ? दिल्ली की जटिल परिस्थितियों को देखते हुए आज जो परिस्थितियां सामने दिखायी दे रही हैं उनसे केवल उस ग़लती को ही समझा जा सकता है जिसके अंतर्गत अनावश्यक रूप से दिल्ली को राज्य का दर्ज़ा दिया गया था और छोटे राज्यों के हिमायती लोग जिस तरह से गोवा और दिल्ली जैसे नगर पालिकाओं से छोटे राज्यों की बातें करके देश को सुधारने की बातें किया करते हैं आज उसके दुष्परिणाम भी सबके सामने हैं. यह सही है कि दिल्ली में केंद्रीय और राज्य स्तरीय सरकारों और राष्ट्रीय अंतरार्ष्ट्रीय स्तर के आयोजनों के लगातार होते रहने के कारण दिल्ली पुलिस को एक नीति के तहत ही केंद्रीय गृह मंत्रालय के आधीन रखा गया था पर आज दिल्ली पुलिस की कार्य शैली और राजनैतिक महत्वाकांक्षाएं दोनों ने मिलकर संघर्ष की स्थिति पैदा कर दी है.
                               दिल्ली पुलिस या देश के किसी भी राज्य की पुलिस के काम करने के तरीके से देश किसी भी हिस्से के नागरिक बिलकुल भी संतुष्ट नहीं हैं तो फिर हर बात के लिए केवल दिल्ली पुलिस को ही निशाने पर लेना कहाँ तक उचित हो सकता है ? व्यवस्था में परिवर्तन होना चाहिए पर अरविन्द ने जिस तरह से शुरुवात की उसको व्यापक जन समर्थन कब तक मिल पायेगा यह भी समय ही बतायेगा क्योंकि जब वो व्यवस्था से दुखी होकर इसे बदलने के लिए ही इसके अंदर आये हैं तो उन्हें कम से कम नागरिक मुद्दों से जुड़े हुए पहलुओं पर ध्यान देकर अपनी सरकार का अलग चेहरा जनता के सामना प्रस्तुत करना चाहिए था पर दिल्ली पुलिस के मसले पर वे सोमनाथ भारती के मामले को लेकर जिस तरह से हमलावर हो रहे हैं क्या वो भारतीय कानून में कहीं से भी टिक सकता है और यह तब है जबकि भारती खुद भी वकील हैं ? देश का कानून किसी भी महिला को रात के समय हिरासत में लेने से रोकता है और जिस तरह से उन विदेशी महिलाओं ने आप पर आरोप लगाये हैं क्या उनका कोई मतलब नहीं बनता है दिल्ली पुलिस की कमान अपने हाथ में लेने के लिए इस तरह की परिस्थिति उत्पन्न करने को भी सही नहीं ठहराया जा सकता है.
                                कुछ अतिउत्साही लोग इस पूरी प्रक्रिया को इस तरह से भी लेने लगे हैं कि जैसे यह कोई बहुत बड़ी क्रांति हो इतना अवश्य ही है कि ज़िम्मेदारी के साथ सरकारें चलाने की कोशिश करके अरविन्द केंद्र सरकार पर और भी अधिक सामजिक दबाव बनाने का काम कर सकते थे. देश में आंदोलन करना बहुत आसान है पर जिस तरह से इन अभियानों को इनसे जुड़े लोगों की महत्वाकांक्षाएं खा जाया करती हैं आज एक बार फिर से कुछ वैसी ही स्थितियां बनती हुई दिखायी दे रही हैं. दिल्ली में सरकार के आधीन न होने के बाद भी अपराध होने को अरविन्द कुछ इस तरह से मुद्दा बना रहे हैं जैसी कि अन्य राज्यों में जहाँ पर पुलिस राज्य सरकार के नीचे आती है वहाँ पर नेता उससे बहुत बड़ा काम करवाये ले रहे हैं. दिल्ली में सत्ता के दो केंद्र होने के कारण ही अभी तक भाजपा और कॉंग्रेस ने इसी व्यवस्था के तहत दिल्ली में सरकारें चलायी हैं हाँ यह अलग बात रही कि जब दिल्ली भाजपा के कब्ज़े में रही तो केंद्र में भी उनकी और इसी तरह लगभग कॉंग्रेस की सरकार के साथ भी अधिक समय तक रहा तो हितों में टकराव कम ही रहा. केवल पुलिस को छोड़कर अन्य जो भी विभाग दिल्ली सरकार के नीचे आते हैं समय उनमें परिवर्तन दिखाने का है पर विश्वास की राजनीति के स्थान पर टकराव की राजनीति को कितने दिनों तक चलाया जा सकता है ?         
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें