मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 10 मार्च 2014

चुनाव में सामाजिक भागीदारी

                                                   इस बार के चुनावों में जिस तरह से नेताओं के अतिरिक्त समाज के कई अन्य क्षेत्रों से भी लोग राजनीति में आने के लिए विभिन्न स्थानों से मैदान में तैयार दिखायी दे रहे हैं वह एक तरह से देश के लिए बहुत अच्छी खबर है क्योंकि अभी तक जितने भी चुनाव हुए हैं उनमें या तो नेता या फिर कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं के अतिरिक्त खिलाडी और फ़िल्म कलाकार ही चुनाव में दांव आज़माया करते हैं और अपने क्षेत्र की प्रतिष्ठा के चलते वे आसानी से कई बार सदन तक पहुंचने में सफल भी होते रहे हैं. इस बार यदि देखा जाये तो दक्षिण बंगलुरु से स्थानीय कॉंग्रेसी प्रत्याशी नंदन नीलकेणी एक ऐसा नाम हैं जिनको किसी भी तरह के परिचय की आवश्यकता नहीं है. टेक्नोक्रेट के रूप में उनको सभी जानते हैं पर वर्तमान संप्रग सरकार ने आधार परियोजना में उनका जिस तरह से उपयोग किया है और अब कॉंग्रेस उनके लिए कोई बड़ी ज़िम्मेदारी तलाशने की भूमिका में भी दिख रही है तो यह देश के लिए अच्छा संकेत ही है क्योंकि अपने सही तरह से काम करने के कारण नीलकेणी की एक छवि पहले से ही बनी हुई है.
                                                  आधार जैसी महत्वपूर्ण परियोजना से जुड़े होने के बाद जिस तरह से नीलकेणी ने सरकारी मशीनरी से काम लिया यह उनकी कार्य क्षमता को भी दिखता है और आज देश को एक नहीं ऐसे कई नीलकेणी की आवश्यकता है क्योंकि अब हर क्षेत्र में केवल नेताओं की सोच से काम नहीं चलने वाला है तथा हर क्षेत्र के विशेषज्ञों की सेवाओं की देश को ज़रुरत है. नीतियों के निर्धारण के मामले में आज भी हमारी संसद जिस तरह से पूरी तरह से राजनैतिक कदम ही उठाया करती है उससे अब आगे जाने की आवश्यकता महसूस होने लगी है बल्कि एक काम जो संसद में होना चाहिए कि देश के लिए एक समयबद्ध विकास का रोडमैप बनाया जाये और किसी भी सरकार को उसकी न्यूनतम सीमाओं को बनाये रखने के लिए बाध्य भी किया जाये क्योंकि सरकार चाहे किसी भी दल या नेता की हो देश की आवश्यकताएं किसी भी परिस्थिति में बदलती नहीं हैं और भारत की युवा ऊर्जा को सही तरह से उपयोग में लाने के लिए अब यह आवश्यक है कि नीतियों को सही किया जाये.
                                                 जिस तरह से संसद में लगभग हर मसले पर संसदीय समितियों की व्यवस्था संविधान में की गयी है ठीक उसी तरह से इन समितियों के सामने देश के विकास से सम्बंधित अपने विचार रखने के लिए क्षेत्र विशेष की बड़ी कम्पनियों या सामाजिक समूहों की भी समितियां होनी चाहिए जो स्थायी रूप से काम करती रहें और उनके चयन में केवल देश हित को आगे रखा जाये क्योंकि वहाँ पर भी राजनीति के आने से विकास में ठहराव आ सकता है. आखिर क्यों हमारे नेता इस तरह के किसी बड़े परिवर्तन के लिए सोचना शुरू नहीं करते हैं क्यों उन्हें सदैव यही लगता है कि उनकी सोच से आगे कोई और सोच भी नहीं सकता है ? अब देश के नेताओं को इस तरह की सोच से आगे जाने की आवश्यकता है क्योंकि आज संसदीय समितियां ऐसी भी हैं कि जिनमें अनौपचारिक शिक्षा प्राप्त लोग विज्ञान और तकनीक की समिति में हैं तो उसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जा सकता है और संसदीय लोकतंत्र की मजबूरी यह कि संख्या के अनुसार हर दल के सदस्यों को जगह भी देनी है भले ही उसे उस क्षेत्र का कुछ भी पता न हो ? अब सही सोच के साथ आगे बढ़ते हुए हर क्षेत्र के व्यक्तियों का राजनीति में स्वागत करने का सही समय आने ही वाला है और यह जनता पर है कि वह इनमें से कितनों को सदन तक पहुंचती है और कितने दौड़ में पीछे रह जाते हैं. 
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

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