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मंगलवार, 11 मार्च 2014

भ्रष्टाचार, नेता और कानून

                                            कॉंग्रेस के मनीष तिवारी और भाजपा की सुषमा स्वराज ने अपने अपने दलों में जिस तरह से भ्रष्टाचार के आरोपों में फंसे हुए नेताओं के साथ चुनावी मुहिम को आगे बढ़ाने की पार्टियों की नीतियों पर अपने स्वर आगे किये हैं वह भारतीय राजनीति के लिए बहुत ही अच्छे अवसर के रूप में सामने आ सकते हैं क्योंकि यदि ये दोनों प्रमुख दल इस बात को सैद्धांतिक रूप में स्वीकार कर लें कि किसी भी परिस्थिति में किसी भी आरोपी या दागी व्यक्ति को किसी भी तरह के चुनाव में उनकी पार्टी की तरफ से लड़ने के लिए अधिकृत नहीं किया जायेगा और न ही उनका समर्थ किया जायेगा तो यह अपने आप में राजनीति की अंतरिक् शुद्धता को बचाये रखने में बहुत सहायक हो सकता है. आज जिस तरह से हर दल के नेता भ्रष्टाचार के आरोपों को झेल रहे हैं तो पार्टियां भी उनके महत्व को अनदेखा नहीं कर पाती हैं कहीं पर स्थानीय समीकरण तो कहीं पर जातीय समीकरण ही बिगड़ जाने के कारण ये आरोपित बिना किसी जांच के पूरा हुए सदनों में पहुँचते रहते हैं और लोकतंत्र का मज़ाक बनता रहता है.
                                          इसी क्रम में जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने भी कल ही अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह कहकर मामले को और भी आसान कर दिया है कि सम्बंधित निचली अदालतें एक वर्ष के भीतर ही जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामलों की सुनवाई पूरी करें और यदि वे ऐसा कर पाने में असफल रहती हैं तो उन्हें सम्बंधित हाई कोर्ट में स्पष्टीकरण देकर उसे देरी के कारणों के बारे में सूचित करना ही पड़ेगा. नेताओं की पुलिस और प्रशासन पर पकड़ होने के कारण आज भी बहुत सारे मामलों में केवल प्राथमिकी ही दर्ज़ हो पाती है और वर्षों तक किसी भी तरह की कोई अन्य प्रगति नहीं होती है जब कभी कोर्ट का दबाव या उनके किसी विरोधी दल की सरकार आती है तो उनके खिलाफ मुक़दमें शुरू हो पाते हैं. यदि इस तरह से निचली अदालतें भी पूरी तरह से दिन प्रतिदिन सुनवाई करके मामले को समाप्त करने की तरफ बढ़ना शुरू कर देंगीं तो दोषियों को आसानी से दण्डित किया जा सकेगा और जो निर्दोष हैं उन पर भी अनावश्यक खतरे की तलवार नहीं लटकती रहेगी जिससे उनके चुनाव लड़ने के बारे में फैसले लेने पर पार्टियों के लिए भी आसानी हो जायेगी.
                                         इस मसले में सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि कोर्ट से मिले इन दिशा निर्देशों के बाद भी अब राजनैतिक दल इस अवसर को किस तरह से स्वीकार करते हैं और देश में भविष्य के दागी राजनेताओं के मसले पर किस तरह से अपनी नीतियों का निर्धारण करते हैं ? आज के इस अवसर को यदि केवल कॉंग्रेस और भाजपा ही आगे बढ़कर एक नयी शुरुवात के रूप में निश्चय कर लें कि किसी भी विचाराधीन दागी व्यक्ति को वे टिकट देना बंद कर देंगीं तो यह अन्य दलों पर एक दबाव जैसा भी काम कर सकता है कि उनके लिए अपने दागियों को बचाने के लिए कुछ अलग सोचना पड़ेगा. पर यह सवाल अपने आप में इतना बड़ा है कि कोई भी पार्टी इससे आसानी से पीछा नहीं छुड़ा सकती है क्योंकि हर पार्टी अपने यहाँ के दागियों को खुलेआम दागी मानती ही नहीं है तो वह किस तरह से इनके खिलाफ कोई बड़े कदम उठाने के बारे में सोच भी सकती हैं ? इन सबसे आगे बढ़कर अब यह सोचने का समय है कि राजनीति से इस तरह के आरोपितों को केस ख़त्म होने तक सक्रिय राजनीति से कैसे दूर रखा जाये और इस बार की लिस्ट देखकर यह भी स्पष्ट हो जाने वाला है कि हमारे राजनेता भ्रष्टाचार में आरोपितों के खिलाफ कड़े कदम उठाने के लिए तैयार भी हैं या केवल बयानों तक ही वे सीमित रहना चाहते हैं.       
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