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शुक्रवार, 14 मार्च 2014

भारतीय लोकतंत्र के दागी और शहज़ादे-शहज़ादियां

                                                  देश में राजनीति के शुद्धिकरण की लम्बी चौड़ी बातें चुनाव आते आते किस तरह से परदे के पीछे जाने लगती हैं इसका ताज़ा उदाहरण लोकसभा चुनावों के लिए सभी दलों के घोषित हो रहे प्रत्याशियों की सूची से आसानी से समझा जा सकता है क्योंकि अभी तक जितने भी सिद्धांतों और नियमों की रचना की जा रही थी अब चुनावी मौसम में उन्हें भूलने का समय अवश्य ही आ गया है और हर दल केवल जिताऊ प्रत्याशियों पर ही अपना दांव खेलना चाहता है भले ही उसके लिए उसे अपने सिद्धांतों कि ही बलि क्यों न चढ़ानी पड़े ? दागी नेताओं को  टिकट न देने के संकल्प से शुरू हुई कॉंग्रेस और भाजपा की हवाई किलेबंदी अब धरती पर किस तरह से रेत के महल की तरह भरभरा कर गिर रही है और मतदाताओं को चिढ़ाने का काम कर रही है यह किसी से भी छिपा नहीं है तथा हर बार की तरह अपने इन क़दमों को हर डालके नेता कितनी बेशर्मी के साथ छिपाने में लगे हुए हैं आज भारतीय लोकतंत्र का यह स्वरुप दिखायी देने लगा है. कहने और करने में कितना अंतर होता है यह इस तरह की बहुत सारी हरकतों से देखा जा सकता है.
                                                   दागियों को जिस तरह से सक्रिय राजनीति से दूर रखने की कोशिशें शुरू में अच्छी लग रही थीं तो उन दागियों के बड़े आभा मंडल के सामने अब देश को चलाने का दावा करने वाले दल किस तरह से नतमस्तक होते दिख रहे हैं यह अब कोई गुप्त बात नहीं रह गयी है और सम्भवतः चुनाव की तारीखें और भी नज़दीक आने के समय तक नैतिकता और सामाजिक मूल्यों की दुहाई देने वाले नेता अपने इस झूठे और मक्कारी के आवरण को किस तरह से उतार फेंकने वाले हैं यही देखना अधिक दिलचस्प होने वाला है. देश को ऐसे समय में पीछे छोड़कर अपने दलीय हितों को साधने का काम करने वाले नेता आखिर यह सब कितनी आसानी से पिछले पायदान पर रखकर अपने को पाक साफ़ दिखाने की हर जुगत करते दिखने लगते हैं. आखिर क्या कारण है कि कुछ सीटों का लोभ इन बड़े दलों के साथ छोटे दलों को भी राजनीति में दागियों के प्रवेश से रोकने में रोक ही देता है और चुनावी मौसम आते ही सभी दागी पवित्र हो जाते हैं और उनके लिए हर दल के दरवाज़े भी आसानी से खुल जाते हैं.
                                                  इसे देश के जनतंत्र की मजबूरी कहा जाये या कुछ और कि अपने भाषणों में राहुल गांधी को शहज़ादा कहने वाले मोदी भी अपने प्रभाव के चलते आज भाजपा में इन शहज़ादे और शहजादियों के प्रवेश को नहीं रोक पा रहे हैं ? सम्भवतः किसी भी तरह से जादुई २७२ के आंकड़े तक पहुँचने की ललक में अब भाजपा और मोदी ने भी हर उस हथकंडे को अपनाना शुरू कर दिया है जिसके लिए वे अभी तक कॉंग्रेस पर ज़ोरदार तरीके से हमले किया करते थे. देश में नेताओं के पुत्रों और पुत्रियों को आगे आने से रोकने का कोई कारण नहीं बनता है क्योंकि यदि अन्य क्षेत्रों के लोग अपने बच्चों के लिए अपने क्षेत्र में भविष्य तलाशते हैं तो नेताओं को इससे वंचित कैसे किया जा सकता है ? भारत में जीवंत लोकतंत्र है और यहाँ पर किसी भी दल के नेता को अपने बच्चे को चुनावों के रास्ते से गुज़ारने की मजबूरी भी होती है क्योंकि बिना उसके उनकी स्वीकार्यता उतनी नहीं रहने वाली है जितनी पहले रहा करती है. जनता के द्वारा भले ही भावनात्मक रूप से दोहन करने के बाद ही ये लोग चुने जाते हों पर उन पर इस तरह से ऊँगली उठाकर उन पर मज़ाक बनाने वाले मोदी के पास अब अपने इन शहज़ादों के लिए क्या शेष है यही भारतीय राजनीति में वो परिवर्तन है जिसका दावा मोदी और भाजपा करते हैं पर उसे कर पाने का साहस उनके पास नहीं है.
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