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सोमवार, 14 अप्रैल 2014

पीएमओ और राजनीति

                                                 देश में इस बार आम चुनावों से पहले संभवतः पहली बार जिस तरह से प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को भी राजनीति के केंद्र में रखा जा रहा है उसकी कोई आवश्यकता नहीं है पर कभी अटल और फिर मनमोहन के मीडिया सलाहकार संजय बारु की किताब में राजनीति में सोनिया के दखल की बात कहे जाने से मामला और भी अधिक संवेदनशील हो चुका है जिसके जवाब में अब कांग्रेस भी एक पुराने आरटीआई आवेदन के माध्यम से पुराने पत्राचार को सामने लाना चाहती है जिसमें २००२ के गुजरात दंगों के समय और उसके बाद पीएमओ और गुजरात सरकार के बीच की बातचीत को सार्वजनिक किये जाने की मांग की गयी थी. हालाँकि इस आवेदन का निपटारा बिना कोई स्पष्ट कारण बताये एक बार किया जा चुका है पर अब एक बार फिर से इसे सार्वजनिक किये जाने की बात होने लगी है. महत्वपूर्ण बात यह है कि इस तरह की गतिविधियों से आखिर देश को क्या हासिल हो सकता है और उसका आने वाले समय में इस कार्यालय पर क्या प्रभाव पड़ने वाला है ?
                                                 पूरी दुनिया जानती है कि संप्रग के दोनों कार्यकालों में ही जिस तरह से सरकार चलाने की ज़िम्मेदारी मनमोहन सिंह को सौंप कर सोनिया ने केवल राजनैतिक मामलों की कमान संभाल रखी थी उससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता है पर जब कुछ निर्णय चाहे वे सोनिया के कारण लिए गए हों या फिर किसी अन्य दबाव में उनकी प्रशासनिक ज़िम्मेदारी से पीएमओ नहीं बच सकता है. राजनैतिक और प्रशासनिक स्तर पर देश में संभवतः पहली बार ही इस तरह से सत्ता के दो केन्द्रों ने इतने लम्बे समय तक बिना किसी विवाद के ही काम किया जिसमें कुछ अच्छे निर्णय तो कुछ विवादित निर्णय भी सामने आये तो उनकी ज़िम्मेदारी से न तो कांग्रेस और न ही संप्रग सरकार पीछे हट सकती है. कुछ बड़ी कमियां तो अवश्य ही रही हैं इस तरह से सत्ता के सँभालने में तभी देश में संप्रग सरकार के लिए बहुत अच्छी रिपोर्ट दिखाई नहीं दे रही है. कोई भी नेता अपने अनुसार सरकार चलाने और आगे बढ़ने के लिए सदैव ही प्रयासरत रहना चाहता है पर कुछ मसलों पर उनकी विफलता सामने आ ही जाती है.
                                               राजनीति में इस तरह से पीएमओ को घसीटने की किसी भी कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए क्योंकि ये देश के सर्वोच्च कार्यालय का एक तरह से दुरूपयोग ही है. पहले के अनुसार इस कार्यालय के अधिकारियों और यहाँ से जुड़े रहे नेताओं को भी यह देखना और समझना चाहिए कि इस तरह के खुलासे कभी भी देश के हित में नहीं हो सकते हैं. गुजरात मामले में यदि गुजरात सरकार इंकार कर देती हैं तो पीएमओ उन पत्रों को सार्वजनिक नहीं कर सकता है कानूनी स्थिति आज के समय में यही है फिर किसी भी पुराने मसले में इस तरह से बोलने की बात करना भी उचित नहीं कहा जा सकता है. पूर्व कोयला सचिव ने भी जिस तरह से २००५ में अपनी नौकरी से अलग होने के लिए पीएमओ को ही जिम्मेदार बताया उसका भी कोई औचित्य नहीं है क्योंकि उनका अपमान भाजपा सदस्य धर्मेन्द्र प्रधान ने किया था. पीएमओ केवल दिशा निर्देश ही जारी कर सकता है और किसी भी दल के सांसद के साथ कोई ज़बरदस्ती नहीं कर सकता है आज इस तरह से हर मामले में पीएम के रूप में मनमोहन सिंह को असफल साबित करने में लगे हुए लोग क्या यह भी नहीं देख पा रहे कि इसका उन्हें कोई राजनैतिक लाभ नहीं मिल सकता क्योंकि चुनाव बाद की राजनीति से मनमोहन सिंह ने पहले ही अलग रहने की घोषणा कर दी है.              
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