मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

बुधवार, 23 अप्रैल 2014

मोदी के बयान के यथार्थ

                                                        भाजपा के पीएम प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने जिस तरह से अपने समर्थकों और पार्टी नेताओं से बयान देने में संयम बरतने की अपील की है और उसके साथ ही इस तरह के बयानों को गैर ज़िम्मेदाराना बताया है उससे यही लगता है कि उन्हें अब यह समझ में आने लगा है कि हिंदुस्तान गुजरात नहीं है और केवल गुजरात की बातें करने या नफरत की बातें उनके पूरे चुनावी अभियान को कितना नुकसान कर सकती हैं इसीलिए उन्होंने खुद ही इस तरह के बयानों पर अपनी राय दी है. यह अच्छा ही है कि देश के पीएम पद के लिए आगे आये व्यक्ति में यह परिवर्तन अभी से दिखाई देने लगे हैं पर संघ परिवार और उसके सहयोगी संगठनों को देश की राजनीति का बहुत अच्छा अनुभव है इसलिए वे एक योजना के तहत ही ऐसी बातें करके हिंदू मतों के ध्रुवीकरण का प्रयास कर रहे हैं. भाजपा और मोदी ने भी जिस तरह से मोदी के कट्टर चेहरे को इस चुनाव प्रचार में छुपाने की पूरी कोशिश की है संघ परिवार कहीं उससे भी आगे जा रहा है क्योंकि उसे लगता है कि विकास के नाम पर भाजपा को वोट पूरे देश से नहीं मिल सकते हैं.
                                                       चुनाव आने के साथ ही मोदी भी अपनी छवि को और भी उदार बनाये रखने के लिए संघर्ष करते हुए प्रयासरत दिखाई दे रहे हैं जो कि संघ परिवार को रास नहीं आ रहा है पर यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अच्छा संकेत ही है क्योंकि केवल हिन्दू हितों की बातें करने वाला भाजपा का सबसे प्रमुख चेहरा भी यदि हिन्दू - मुसलमान से आगे बढ़कर १२५ करोड़ भारतीयों की बात करने पर मज़बूर हो रहा है तो हमारे देश के संविधान और लोकतंत्र की परिपक्वता को ही दर्शाता है. देश की जनता जिसे भी सत्ता पाने की चाह हो उसे देश के हितों का ध्यान रखने के प्रयास करते हुए देखना अच्छा लगता है क्योंकि आज भी संघ के मन में कहीं से भारत को १९२५ में देखे गए अपने हिन्दू भारत के सपने को पूरा करने की ललक बची हुई है. मोदी के राजनैतिक व्यवहार को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि आने वाले समय में संभवतः मोदी पर संघ का प्रभाव कुछ और भी बढे पर जिस तरह से अपने गुजरात के कार्यकाल में उन्होंने केवल मोदी के नाम के आगे सभी को कहीं गुम कर दिया है आज संघ और भाजपा को भी उसे पूरे भारत में दोहराव का अंदेशा बना हुआ है.
                                                        भारतीय जनमानस जिस तरह से जातियों और समूहों में विभाजित है उसमें केवल विकास की बातें करने से काम नहीं चलने वाला है और जेडीयू से सम्बन्ध टूटने के बाद जिस तरह से भाजपा ने बिहार में एकदम से नितीश के सुशासन को पीछे छोड़ जातिवादी समीकरणों पर अपना पूरा ध्यान लगाया वह विकास के दम पर उसके चुनाव लड़ने की क्षमता पर भी बड़ा प्रश्नचिन्ह है ? इन चुनावों की शुरुवात में लगने लगा था कि  इस बार जाति धर्म से आगे बढ़कर विकास एक बड़ा मुद्दा होने वाला है पर सपा की सरकार ने मुज़फ्फरनगर में अपनी ढिलाई से भाजपा को उसका मनचाहा अवसर खुद ही दिला दिया और अब कोई भी हिन्दू मुस्लिम की बातें करके कुछ वोटों के जुगाड़ में जुटने से परहेज़ नहीं कर रहा है. धार्मिक ध्रुवीकरण में भाजपा जहाँ जातीय समीकरणों को तोड़ने में सफल हो जाया करती है वहीं इस बार यूपी में यह देखना बहुत ही चिलचस्प होने वाला है कि इस बार बसपा और सपा के वोटबैंक पर हिन्दू हितों की बातों का कितना असर पड़ा है ? यूपी में सपा सरकार होने के कारण भाजपा को लोकसभा में यदि महत्वपूर्ण बढ़त मिलती है तो सामजिक विद्वेष बढ़ने और २०१७ के विधानस सभा चुनावों के लिए ध्रुवीकरण का काम अभी से शुरू होने वाला है और विकास कहीं बहुत पीछे भी धकेला जाने वाला है.
        
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