मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

जमात-ए-इस्लामी हिन्द की प्राथमिकता सूची

                                      देश में चल रहे आम चुनावों के बीच जिस तरह से जमात-ए-इस्लामी की तरफ से विभिन्न दलों के प्रत्याशियों के पक्ष में वोट डालने की जो अपील की गयी है उसका असर उसी तीव्रता के साथ उल्टा भी हो सकता है क्योंकि हर क्रिया की एक निश्चित और उतनी ही प्रतिक्रिया होना प्रकृति का नियम है. पूरे चुनाव में जिस तरह से शुरुवाती दौर में विकास की बातें करने के बाद भी भाजपा को वो बढ़त दिखाई नहीं दी जितनी उसने नरेंद्र भाई मोदी के नाम पर सोच रखी थी तो उसके पास धार्मिक आधार पर बयान देने के अतिरिक्त कोई अन्य चारा भी नहीं बचा था. आज भी देश के आम हिन्दुओं को भाजपा के साथ उतनी सहानुभूति नहीं है जितनी वह चाहती है तो इसी बात को अपने पक्ष में करने के लिए उसके बाद में द्वारा ऐसे कदम भी उठाये जाते रहते हैं. देश के कुछ राज्यों में मुस्लिम मतदाता पूरे चुनाव को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं और उनके वोट एक तरफ जाने से पूरा चुनावी परिदृश्य बदल जाया करता है मुस्लिम मतों की इस टैक्टिकल वोटिंग से हर दल को अपने सुख व दुःख मिलते रहते हैं.
                                   जमात द्वारा इस तरह से सूची जारी करने को कानून सम्मत तो नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह धार्मिक आधार पर वोटों के ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने की श्रेणी में आता है पर जब अन्य सभी दल अपने अनुसार कुछ भी बोलकर बचते रहते हैं तो कोई भी बड़ा धार्मिक या सामाजिक संगठन अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने से कैसे चूक सकता है ? मुस्लिम मतों के लिए गैर भाजपा दल ही नहीं वरन खुद भाजपा भी कई जगहों पर संघर्ष करती हुई दिखाई देती है क्योंकि एक समय तक उसके नेता भी यह कह दिया करते थे कि उन्हें मुस्लिम मतों कई दरकार नहीं है पर अब पूरे भारत पर राज करने के लिए उनके लिए सभी लोगों तक अपनी पहुँच बनाये रखना एक बड़ी मजबूरी बन चुकी है. लोग अपने समर्थकों से इस तरह की अपील किया ही करते हैं तो उसमें नया क्या है पर जब धार्मिक ध्रुवीकरण के साथ इसका दुरूपयोग किसी के भी द्वारा किया जाता है तो पूरा मामला संवेदनशील भी हो जाता है.
                                  समाज के प्रभावी लोगों द्वारा नेताओं का समर्थन किया जाना कोई नयी बात नहीं है खुद बड़े धार्मिक गुरु भी धर्म नगरियों से भाजपा के पक्ष में वोट देने की अपील करते हैं और आज भी भाजपा या अन्य दलों के टिकट पर चुनावी मैदान में उतरने वाले धर्म गुरुओं कई कोई कमी नहीं है. देश में धर्म को राजनीति को सैद्धांतिक तौर पर अलग रखने कई बातें तो की जाती हैं पर आम तौर भारतीय जनमानस पर धर्म का जितना प्रभाव है उससे भी इंकार यहीं किया जा सकता है. इस तरह की सोच एकपक्ष द्वारा आगे लए जाने से दूसरे पक्ष को अपने मतों के ध्रुवीकरण में मदद मिलती है जिसका उदाहरण पश्चिमी यूपी के चुनावों में देखा भी जा चुका है. अखिलेश सरकार की केवल कई नाकामी उन्हें कितनी भारी पद गयी है यह तो संभवतः चुनावों के बाद ही उनकी समझ में आएगा क्योंकि यूपी में अपनी खोयी हुई राजनैतिक भूमि को पाने में संघर्षरत भाजपा को सबसे अधिक सहायता उनकी तरफ से ही मिली है. अच्छा होता कि देश के किसी भी चुनाव में आम लोग अपने दिल से ही वोट देने में सफल होते न कि किसी अपील के माध्यम से थोक में अपने वोट किसी प्रत्याशी को देने की कोशिशें करते.    
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