मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

मतभिन्नता या विशेष रणनीति

                                          पिछले कुछ दिनों में जिस तरह से भाजपा के छोटे और राज्य स्तरीय नेताओं द्वारा समाज में तनाव बढ़ाने वाले बयान दिए जा रहे हैं उससे यही लगता है कि भाजपा ने इन सभी को किसी भी स्तर तक इस तरह से कुछ भी बोलने की छूट दी हुई है ? चाहे गिरिराज सिंह हो या कोई अन्य हर बार लगभग इसी तरह की बयानबाज़ी के बाद पार्टी अपने को इस सबसे अलग कर लेती है और मुद्दे पर बहस शुरू हो जाती है पिछले वर्ष से इस चुनाव में जिस तरह से सुशासन को मुद्दा बनाकर भाजपा सामने आने की शुरुवाती तैयारी कर रही थी वह चुनाव के माहौल में धीरे धीरे उसी तरह बढ़ती हुई लग रही है जिस क्षेत्र में भाजपा को बढ़त हासिल है ? आज कोई भी सुशासन की बातें नहीं कर रहा है क्योंकि गुजरात के विकास की जो कहानी सबके सामने रखी जा रही थी उसके भी राष्ट्रीेय सूचकांक के मानकों पर कई जगह पर पिछड़ने की बात सामने आई है जिसे भाजपा सदैव ही विरोधियों की चाल बताकर अपने को बचाने की कोशिशों में लगी दिखती है.
                                         भारतीय समाज में आज भी सम्पूर्ण और समग्र विकास पर जातियां हावी रहा करती हैं और भारतीय जनमानस के स्वरुप को समझते हुए जहाँ आधिकारिक तौर पर भाजपा इससे परहेज़ ही करती है वहीं अपनी चुनावी सभा में नरेंद्र मोदी खुद भी यह कहने से नहीं चूकते हैं कि वे स्वयं पिछड़ी पृष्ठभूमि से अाये हुए कभी चाय बेचने वाले व्यक्ति हैं ? यदि उन्हें अपने काम के मॉडल पर इतना भरोसा है तो उन्हें ये जातिवादी चोगा पहनने की क्या आवश्यकता थी और जब मीडिया के अनुसार वे बढ़त बनाये हुए हैं तो देशहित में उनकी प्राथमिकता इस जातीय कुचक्र को तोड़ने की होनी चाहिए थी पर कहीं से उनकी राजनैतिक महत्वाकांक्षा ने उनके हाथों से यह अवसर भी छीन ही लिया ? गुजरात में सर्वमान्य और लोकप्रिय नेता होने के बाद भी उन्होंने जिस तरह से भारतीय राजनीति की इस गंदगी को चुपचाप फलने फूलने दिया उसका समाज पर बुरा असर तो पड़ना ही है पर संभवतः देश की कसमें खाने वाले नेताओं के पास आवश्यकता पड़ने पर देश को तक में रखने का इससे अच्छा विकल्प चुनावों में होता भी नहीं है.
                                           विद्वेषपूर्ण बयान देने में जिस तरह से भाजपा को महारत हासिल है वह सभी को पता है पर इस बार उसने  मतों के धुवीकरण के लिए अपने तीसरे दर्ज़े के नेताओं को चुना है क्योंकि वह एक रणनीति के तहत ही समाज में ऐसा बातें करके अपने मतों को इकठ्ठा करना चाहती है. सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन बयानों से आसानी से पीछा छुड़ाकर वह इन नेताओं के खिलाफ कुछ भी बोलने से परहेज़ करती है पर मुद्दे को जिन्दा रखते हुए चुनावों को प्रभावित करने की कोशिशें करती ही रहती है. अब तो उसके ये नेता यह भी कहने में नहीं चूकते हैं कि पार्टी भले ही न माने पर वे अपने बयानों पर टिके रहेंगें तो यह किसी विशेष नीति की तरफ ही संकेत करता है. देश जिस तरह से नरेंद्र मोदी पर भरोसा करना चाहता है संभवतः मोदी को वह रास नहीं आ रहा है वर्ना इस अवसर को वे अपने लिए एक बड़े विकल्प के रूप में सामने कर सकते थे और भारतीय राजनीति की उस गंदगी को समाप्त करने के लिए आगे भी बढ़ सकते थे क्योंकि आज भाजपा के किसी नेता में उनकी बात टालने का साहस नहीं बचा है फिर भी वे देशहित में यह काम करने से चूक ही गए लगते हैं.      
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