मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 1 मई 2014

राजनीति और विकास

                                                      भारतीय राजनीति में हर बात पर एक दूसरे की टांग खींचने वाले नेताओं के मुंह पर वर्ल्ड बैंक की ताज़ा रिपोर्ट एक बड़े तमाचे के रूप में ही है जिसमें कहा गया है कि भारत ने मात्र छह साल के भीतर ही जापान को पीछे छोड़ दिया है और अब वह अमेरिका और चीन के बाद दुनिया की तीसरे नम्बर की इकॉनमी बन गया है, इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि जब पूरी दुनिया में मंदी का दौर चल रहा था उस बीच ही भारत की इस तरह की प्रगति वास्तव में बहुत मायने रखती है क्योंकि देश की का २००५ में दुनिया में दसवां स्थान था और आज भी वह अपने को मज़बूत करने में लगा हुआ है. भारत की आर्थिक शक्ति और क्षमता के आगे पूरी दुनिया आज नतमस्तक है क्योंकि बाज़ारीकरण के इस दौर में मुनाफा वसूली सबसे महत्वपूर्ण हो गयी है इस सबके बीच जिस तरह से भारत का प्रदर्शन रहा है वह अपने आप में संतोष की बात हो सकती है फिर भी अभी आर्थिक रूप से अपने क्षमताओं के पूरे दोहन और प्रदर्शन के लिए हमें बहुत आगे तक सोचना है.
                                                    रिपोर्ट में जिस तरह से भारत में मूल्यों को नियंत्रित करने के मुद्दे पर सफलता की तारीफ की गयी है वहीं अफ्रीका और एशिया के सस्ती इकॉनमी वाले देशों में भारत को सबसे आगे भी बताया जो दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं अमेरिका और चीन के साथ बराबरी करने का माद्दा भी रखता है. अब सवाल यह है कि देश को इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए क्या कदम उठाने चाहिए जिससे आने वाले समय में पूरी अर्थ व्यवस्था को और भी तेज़ी प्रदान की जा सके तथा देश के इस दबदबे को भारत की जनशक्ति के भरोसे और भी मज़बूत किया जा सके ? आज भी देश में केवल राजनैतिक कारणों से अनावश्यक दोषारोपण करने की मंशा स्पष्ट रूप से दिखाई देती है जिसका पूरे देश के सन्दर्भ में कोई मतलब नहीं बनता है क्योंकि राजनैतिक दल चाहे कोई भी हो देश की अर्थव्यवस्था सुधारने का सूत्र वही रहने वाला है और उसमें कोई बड़ा परिवर्तन कम से कम आगे तीन दशकों तक संभव नहीं दिखता है तो अब देश को आगे बढ़ने की नीतियों पर मिलकर काम करना ही होगा.
                                                   क्या देश की संसद देश की महत्वपूर्ण नीतियों पर एक समयबद्ध योजना बनाकर उसका अनुमोदन नहीं कर सकती है जिस पर चलने के लिए किसी भी सरकार को बाध्य किया जा सके क्योंकि जब तक एक जैसी आर्थिक गतिविधियों के आगे नहीं बढ़ाया जायेगा तब तक उसके अपेक्षित परिणाम सामने नहीं आने वाले हैं. १९९१ में मनमोहन सिंह ने जो कुछ भी प्रयास शुरू किये थे आज भी वे उतने ही प्रासंगिक है और तीसरे मोर्चे और अटल सरकार ने भी उस नीति को आगे बढ़ाने का काम ही अभी तक किया था. देश में आज भी कोई ऐसी टास्क फ़ोर्स विकसित नहीं की जा सकी है जो इन मसलों पर नेताओं के हितों से आगे बढ़कर सोचने का काम कर सकती हो पर अब यह देश की आवश्यकता है क्योंकि आज देश में कांग्रेस या भाजपा के नेतृत्व वाली कोई सरकार ही अगले कुछ दशकों तक सत्ता में दिखाई देने की संभावनाएं बनी हुई हैं तो इन दोनों दलों का यह कर्तव्य बनता है कि वे देशहित में अपने पार्टी के मुद्दों को पीछे छोड़ें. सैद्धांतिक तौर पर तो भाजपा मनमोहन सिंह के मॉडल को स्वीकार करती है पर राजनैतिक तौर पर वह इस मॉडल पर हमले करने से भी नहीं चूकती है जिससे विश्व में गलत सन्देश जाता है. अब देश की अधिकांश नीतियों कि निर्धारण के लिए इन दोनों दलों को साथ आकर सोचना ही होगा.        
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