मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 15 मई 2014

सेना और राजनीति

                                                 आखिरकार चुनाव आयोग द्वारा रक्षा और अन्य सामरिक मामलों में की जाने वाली नियुक्तियों को आचार संहिता के बाहर बताये जाने के बाद मनमोहन सरकार ने तीन महीने पहले ही सेना के भावी नेतृत्व की घोषणा करने के काम को अंजाम दे ही दिया. इस पूरी घटना में जिस तरह से भाजपा द्वारा अनावश्यक रूप से बयानबाज़ी की गयी और चुनाव आयोग से भी इस सम्बन्ध में शिकायत की गयी उससे यही सन्देश गया जैसे नामित सेनाध्यक्ष पर कोई बहुत बड़ी तोहमत लगी हुई है और सरकार उन्हें इसके बाद भी यह ज़िम्मेदारी देने पर आमादा है ? पूरे घटनाक्रम में भाजपा का रुख बहुत ही अप्रत्याशित ही रहा क्योंकि २००४ के चुनावों के दौरान भी जुलाई में  बदले जाने वाले नौसेनाध्यक्ष की नियुक्ति अटल सरकार ने चुनावी माहौल के बीच ही की थी पर उस पर तब कांग्रेस या किसी अन्य दल ने कोई आपत्ति नहीं की थी फिर आज भाजपा के इस तरह से विरोध किये जाने का कोई मतलब समझ में नहीं आता है.
                                                   इस तरह की नियुक्ति आम तौर पर केवल वरिष्ठता के आधार पर ही की जाती है क्योंकि सेना जैसी जगह पर इस तरह की राजनीति का कोई मतलब नहीं होता है. भारतीय सेना में अब तक केवल १९८३ में इंडिया गांधी ने अरुण श्रीधर वैद्य को अपने से वरिष्ठ अधिकारी पर महत्व देकर नियुक्ति की थी. इस मामले में भाजपा की तरफ से यह कहा जा रहा है कि यह फैसला केवल नई सरकार को करने देना था पर यदि मनमोहन इस प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाते तो वह इस बात के लिए भी उनकी आलोचना करती कि सरकार सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के लिए भी जागरूक नहीं है और स्थापित नियमों को तोड़ रही है ? ले जनरल सुहाग के बाद जिस अधिकारी की वरिष्ठता है वह पूर्व सेनाध्यक्ष और गाज़ियाबाद से भाजपा प्रत्याशी जनरल सिंह के समधी हैं तो क्या भाजपा किसी अन्य मामले के तहत उन्हें आगे करने की राजनीति के चलते ऐसा तो नहीं कर रही है इसका जवाब तो उसे देना ही पड़ेगा.
                                                 स्थापित परम्पराओं की दृष्टि से तो मनमोहन सरकार ने अपने काम को अंजाम दे ही दिया है और अब यदि सुहाग की नियुक्ति में कोई बदलाव सरकार द्वारा किया जाता है तो इस पर निश्चित तौर पर राजनीति होनी ही है क्योंकि इस बार जिस तरह से जाटों के अन्य दलों के मुकाबले भाजपा को वोट दिए जाने का रुख सामने आया है तो उस स्थिति में अपनी जाति को महत्वपूर्ण मानने वाला जाट समुदाय एक जाट सेनापति को हटाये जाने को किस तरह से लेगा यह तो समय ही बताएगा. यह देश के लिए दुर्भाग्य का विषय है पर इस तरह के मामले में भाजपा ने संभवतः जनरल सिंह के दबाव में काम करने का मन बना लिया हो तभी उसके हर स्तर के नेता इस तरह की बयानबाज़ी करने में नहीं चूक रहे हैं ? वैसे भी स्थापित परम्पराएँ तोड़ने में भाजपा और उसके पीएम पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी का कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता है उन्हें देश के स्थापित ढांचे को हिलाना सदैव से ही अच्छा लगता है और अब नयी सरकार बनने की स्थिति में यह स्थिति कैसी रहेगी यह तो भविष्य के गर्भ में ही है.
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