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शुक्रवार, 23 मई 2014

नयी सरकार- शपथ ग्रहण और विवाद

                                                          देश में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में शपथ लेने वाली नयी सरकार के चुनाव जीतने के दस दिन बाद सत्ता सँभालने से आज इससे जुड़े हुए कई मामलों में अनावश्यक विवाद होता दिखाई दे रहा है. सबसे पहले जिस तरह से पीएमओ के ट्विटर एकाउंट को लेकर विवाद हुआ और उसके बाद आब शपथ में सार्क देशों के प्रमुखों को बुलाये जाने का निर्णय लिया गया है और वह बिना बात के विवादों में घिरता दिख रहा है उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी. ट्विटर खाते के बारे में जिस तरह का निर्णय लिया गया वह उचित ही था क्योंकि जब नए पीएम आ रहे हैं तो उनकी नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए एक नए खाते की आवश्यकता तो थी ही पर इस मसले पर भाजपा द्वारा अनावश्यक विवाद खड़ा किया गया क्योंकि ऐसे मामलों में पीएमओ के अधिकारियों ने जो कुछ भी किया आज के समय में सोशल मीडिया में वही एक रास्ता सत्ता परिवर्तन पर विभिन्न देशों द्वारा अपनाया जाता है. सरकारी अधिकारियों को भी इस तरह की किसी भी बात पर निर्णय लेने से पहले अगली सरकार पर निर्णय डालने के बारे में सोचना चाहिए न कि अपने आप ही ऐसे कदम उठाने चाहिए थे.
                                                         सार्क देशों के नेताओं को यदि इसी बहाने से शपथ ग्रहण में बुलाया जाता है तो उसका कोई विरोध नहीं होना चाहिए क्योंकि यह सत्ताधारी दल का अपना नजरिया है कि वह अपनी पारी की शुरुवात किस तरह से करना चाहता है. पाकिस्तान के साथ तो आज़ादी के समय से ही विवाद चल रहे हैं और उनके समाप्त होने की कोई आशा भी आसानी से नज़र नहीं आती है पर कूटनीतिक स्तर पर प्रयास करने और पाक का रुख समझने के बाद ही इस मसले पर पहल करनी आवश्यक थी. देश की अंदरूनी राजनीति का  दबाव जिस तरह से गठबंधन की राजनीति से चलने वाली पिछली सरकार को विभिन्न मंचों पर झेलना पड़ा उसे देखते हुए पूर्ण बहुमत की सरकार से अब देश को काम से कम इतने परिवर्तन की उम्मीद तो है ही कि अब घरेलू राजनीति से कूटनीतिक मामलों को पिछली पायदान पर नहीं धकेला जायेगा. श्रीलंका के साथ अच्छे सम्बन्ध होने से ही तमिलनाडु की राजनीति को संभाला जा सकता है और भारत में रह रहे तमिल शरणार्थियों के पुनर्वास पर सही तरह से पहल भी की जा सकती है.
                                                          देश की राजनीति में राज्यों के क्षत्रपों के उदय के साथ अब उनका दखल राष्ट्रीय राजनीति में बढ़ता ही जा रहा है पर जिस तरह से अभी तक इन दलों के नेताओं की छोटी सोच ही सामने आती रही है उससे देश के पड़ोसियों के साथ संबंधों पर असर पड़ते ही रहे हैं. श्रीलंका के मामले में राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप राष्ट्रमंडल शिखर सम्मलेन के समय भाजपा ने मुख्य विपक्षी दल होने के नाते केवल अपनी सुविधा के अनुसार ही मसले पर कोई राय नहीं दी जबकि उस समय पीएम का श्रीलंका दौर बहुत महत्वपूर्ण था. आज सत्ता सँभालने के साथ ही भाजपा को भी वही सब देखना पड़ रहा है जबकि इस मसले पर देश के दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों की राय भारतीय हितों के अनुरूप ही होनी चाहिए भले ही वे सदन में किसी भी पक्ष में बैठते रहें. इस मसले पर अब कांग्रेस को भाजपा जैसा रवैया अपनाने के स्थान पर राष्टीय हित और महत्व के लिए ऐसे मुद्दों पर सरकार का साथ अपनी राय बनानी चाहिए. आशा की जानी चाहिए कि अटल सरकार के समय कांग्रेस ने जिस तरह से गंभीर विपक्ष की भूमिका निभायी थी वह उसी नीति पर चलेगी और भाजपा की तरह अपने हितों को साधने के लिए सदन से लेकर सड़क तक अनावश्यक विवादों को खड़ा करने से दूर ही रहेगी.
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