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गुरुवार, 12 जून 2014

नेता प्रतिपक्ष और सदन

                                                         १९७७ और १९९८ के नेता प्रतिपक्ष के चयन से सम्बंधित कानूनों के निर्धारण के बाद देश के संसदीय इतिहास में पहली बार सबसे बड़े विपक्षी दल को इतनी कम सीटें मिली हैं कि उनको स्वाभाविक रूप से नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं मिलने वाला है तो सरकार के सामने कितने विकल्प शेष रह जाते हैं जिन पर अमल करते हुए वो संसदीय परंपरा में नेता प्रतिपक्ष को चुने बिना किये जाने वाले विभिन्न महत्वपूर्ण चयनों को किस तरह से पूरा कर पायेगी. आज जो लोग आज़ादी के बाद देश में नेता प्रतिपक्ष न होने की बातें कर रहे हैं उन्हें शायद यह नहीं पता है कि जब नेहरू और इंदिरा का समय था तो उस समय विपक्षी दल के नेता को महत्वपूर्ण नियुक्तियों में इस तरह से शामिल भी नहीं किया जाता था तो किसी भी तरह के संकट की बात सोची ही नहीं जा सकती थी पर आज जिस तरह से बाद में किये गए संशोधनों के माध्यम से नेता प्रतिपक्ष को भी देश की महत्वपूर्ण नियुक्तियों में शामिल कर लिया गया है तो उसके बिना ये काम कैसे निपटाये जायेंगें यह सरकार के लिए महत्वपूर्ण समस्या बन चुका है ?
                                                                 देश में लोकतंत्र को हर परिस्थिति में मज़बूत किया जाये इसको देखते हुए ही लोकसभा उपाध्यक्ष पद और सबसे महत्वपूर्ण लोक लेखा समिति की अध्यक्षता विपक्षी दल को सौंपे जाने की परंपरा बनायीं गयी थी जिसे कमोबेश सभी दलों ने आसानी से अभी तक निभाया भी है पर इस बार जिस तरह से दस प्रतिशत सीटों का मुद्दा नेता प्रतिपक्ष चुनने की राह में रोड़ा बन रहा है तो क्या इसमें सीटों के साथ मतों के अखिल भारतीय स्तर पर प्राप्त मतों के प्रतिशत की व्यवस्था भी नहीं की जानी चाहिए ? यह संकट चूंकि पहली बार सामने आया है तो इस पर सरकार को ही लोकसभाध्यक्ष, संसदीय कार्य मंत्री और संसदीय मामलों के विशेषज्ञों की सलाह से काम करना होगा पर अंतिम फैसला संविधान में कहने के लिए लोकसभाध्यक्ष पर ही छोड़ा गया है. इस मामले पर जितनी राजनीति की जा रही है उसकी भी कोई आवश्यकता नहीं है और सरकार को अब बजट सत्र के पहले ही इस मसले को सुलझा लेने की तरफ सोचना ही होगा. यदि सरकार इन नियमों का हवाला देकर नेता प्रतिपक्ष पर किसी को नहीं लाती है तो उसे नियुक्तियों में नेता प्रतिपक्ष की भूमिका को नियंत्रित करने के लिए संशोधन पेश कर राजनीति को विराम देने के बारे में अपनी स्थिति स्पष्ट कर देनी चाहिए.
                                                               सरकार की मंशा इस पद पर जयललिता और ममता के गठजोड़ के उम्मीदवार को बैठाने की है पर ये दोनों ही नेता अपनी पार्टी में दूसरे सत्ता केंद्र को रोकने के लिए अपने अलावा किसी और को महत्वपूर्ण पद दिए जाने के बहुत खिलाफ रहा करते हैं तो इस परिस्थिति में यदि ये सरकार की मंशा के अनुरूप साझा उम्मीदवार सामने नहीं लाती हैं तो यह नेता प्रतिपक्ष का पद सरकार कांग्रेस को दे सकती है और लोकसभा उपाध्यक्ष के साथ लोक लेखा समिति की अध्यक्षता इन दलों को सौंपी जा सकती है. आने वाले समय में संसदीय गरिमा को देखते हुए सरकार को अविलम्ब इन महत्वपूर्ण पदों के लिए अपनी मंशा ज़ाहिर कर देनी चाहिए और इन दलों के द्वारा नामित सदस्यों को समितियों में नियुक्त कर देना चाहिए. वैसे इन क्षेत्रीय दलों की राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों पर संकुचित सोच आने वाले समय में सरकार के निर्णयों में अड़ंगा लगाने का काम भी कर सकती है. उस खतरे को देखते हुए पीएम और भाजपा लोक लेखा समिति और लोकसभा उपाध्यक्ष का पद इन दलों को इतनी सहजता से केवल कांग्रेस को किनारे करने की नीति के कारण देकर अपनी राजनैतिक समस्याओं को भविष्य में बढ़ाने का काम करने वाले हैं या नहीं यह तो समय ही बताएगा पर इतने कमज़ोर विपक्ष ने इस बार सरकार के सामने यह नयी समस्या खड़ी कर ही दी है.
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