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सोमवार, 1 सितंबर 2014

एनआईए और राष्ट्रीय सुरक्षा

                                                              चुनाव के समय देश की सुरक्षा से किसी भी तरह का कोई समझौता न करने के दावों के बीच जिस तरह से गृह मंत्रालय ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी एनआईए के उस विज़न को अस्वीकार कर दिया है जिसे उसने बड़ी आशाओं के साथ सरकार के सामने रखा था उससे सरकार के राजनैतिक भाषण और अनुपालन में अंतर का पता चल जाता है. केंद्र सरकार और मोदी के काम करने की शैली और चर्चित रूप से तेज़ निर्णयों के बीच एजेंसी ने भविष्य के लिए अपनी योजनाओं को सामने लाते हुए आतंकी चुनौतियों से निपटने में पूरी तरह स्वयं को सक्षम करने के लिए वर्तमान संख्या को ८०० से बढ़ाकर २००० करने का प्रस्ताव सरकार को भेजा था. एजेंसी को पूरी आशा थी कि राष्ट्रीय सुरक्षा की बात करने वाली सरकार इस प्रस्ताव को बिना किसी हिचक के मान लेगी पर इतने महत्वपूर्ण मामले को संभवतः एक सचिव स्तर के अधिकारी के द्वारा ही निपटा दिया गया है ? एजेंसी को आने वाले समय के लिए मज़बूत करने के स्थान पर उससे कहा गया है कि वह अपने वर्तमान में रिक्त पड़े पदों को भरने की व्यवस्था करे.
                                                                 इस पूरे प्रकरण से यह बात तो स्पष्ट ही है सरकार की मंशा इस एजेंसी को लेकर कहीं न कहीं कुछ अलग अवश्य है क्योंकि इस एजेंसी का अभी तक का काम ठीक ठाक ही रहा है और सीमित संसाधनों में जिस तरह से यह काम कर रही है वह भी अपने आप में काम महत्वपूर्ण नहीं है. इस महत्वपूर्र्ण मसले को या तो केवल सचिव स्तर से ही निपटा दिया गया है या फिर संभवतः सरकार इसके स्थान पर कुछ नया करने के बारे में सोच रही हो जिससे भी इसको अभी सीमित रहने दिया जा रहा है. भाजपा, पीएम और सरकार द्वारा अभी तक राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर जिस काम किये जाने के संकेत मिलते रहे हैं तो उसका यह कदम कहीं से भी उसके अनुरूप नहीं लगता है. किसी भी एजेंसी की क्षमता बढ़ाने को उसके खाली पदों से कैसे जोड़ा जा सकता है जबकि वहां पर पूरी तरह से व्यावसायिक और तकनीकी रूप से दक्ष लोगों की ही आवश्यकता है.
                                        सरकार ने निर्णय लेने से पहले पद खाली रहने के कारणों पर खुद ही विचार नहीं किया क्योंकि आज इस एजेंसी में जो भी पद खाली पड़े हों वे सिर्फ इसलिए हैं क्योंकि पहले इसमें नियुक्ति के लिए देश भर की पुलिस और अन्य बलों से लोगों को बुलाया जाता था पर अब यह नियुक्तियां केवल आयोग के माध्यम से ही हो सकती हैं तो उसमें समय भी लगता है. अब इस कारण से एजेंसी की पूरे देश में काम करने की क्षमता में वृद्धि पर रोक लगाये जाने को सरकार किस तरह से सही मानती है यह भी स्पष्ट नहीं है. किसी भी आतंकी घटना के बाद जिस तरह से इस एजेंसी पर सारे साक्ष्य जुटाने की ज़िम्मेदारी रहती है तो उस परिस्थिति में इसके पास सीमित संख्या में कर्मचारी होने को सही कैसे माना जा सकता है ? फिलहाल जिस भी स्तर पर यह आदेश जारी किया हो उस पर अविलम्ब पुनर्विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि जब एक नयी बनी एजेंसी अपने काम को सुधारना चाहती है तो सीमित लोगों के बल पर वह इसे कैसे कर सकती है सरकार को इस पर भी विचार करना चाहिए.     
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