मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

आईएस- अरब और अमेरिका

                                                                             ईराक़ और सीरिया में तेज़ी से बढ़ते हुए चरमपंथी संगठन आईएस के खिलाफ अमेरिका और दस अरब देशों के बीच जो सहमति बनी है वह तात्कालिक रूप से भले ही आईएस को कुछ कमज़ोर करने में सफल हो सके पर उसके और भी दूरगामी परिणाम सामने नहीं आयेंगें यह बात अभी भी कोई दावे के साथ नहीं कह सकता है. ९/११ के बाद से जिस तरह से अमेरिका ने अल क़ायदा को खत्म करने में अपना सब कुछ झोंक दिया उसके बाद भी आज वह केवल कमज़ोर ही हो पाया है पूरी तरह से समाप्त नहीं तो आने वाले समय में आईएस के साथ भी ऐसा ही नहीं होगा इस बात को कैसे मान लिया जाये ? आज जो भी अरब देश अमेरिका के साथ आईएस के खिलाफ खड़े होने के लिए तैयार दिखाई देते हैं उनमें से अधिकांश के शासक अपने यहाँ जनता में बिलकुल भी लोकप्रिय नहीं हैं जिससे उन्हें आईएस के बढ़ते हुए खतरे से अपनी सत्ता भी हिलती हुई दिखाई देती है इसलिए इस मसले को विशुद्ध बल प्रयोग के साथ साथ इस्लामिक समाज के व्यापक रूप के सन्दर्भ में भी देखा जाना चाहिए.
                                                            आईएस जिस तरह से खिलाफत को अपना हथियार बनाना चाहता है उसके इस अभियान के विरुद्ध इस्लामी जगत को ही आगे आना पड़ेगा क्योंकि किसी भी अन्य देश के इस मामले में बोलने से यह मामला इस्लाम बनाम अन्य हो जाने की संभावनाएं अधिक बढ़ जायेंगीं जिससे चरमपंथियों की मंशा आसानी से पूरी हो सकेगी. आज जिन स्थानों पर मुस्लिम आबादी अच्छी खासी संख्या में है और वहां पर उसे किसी अन्य धर्म के द्वारा भी कोई खतरा नहीं है तो वहां की जनता को ये चरमपंथी आखिर किस तरह से बरगलाने में सफल हो रहे हैं यह पूरे इस्लामिक जगत के लिए चिंता का विषय है क्योंकि जब तक इस तरह की समस्या का सही हल खुद इस्लाम के उदारपंथी वर्ग द्वारा नहीं खोजा जायेगा तब तक उसकी सफलता संदिग्ध ही रहने वाली है. आज अरब देशों के शासक अपनी सत्ता को बचाये रखने के लिए जिस तरह से अमेरिका के साथ सहमत हो रहे हैं क्या वे इसके खिलाफ खुद ही कोई मोर्चा नहीं बना सकते हैं जिससे चरमपंथियों की इस लड़ाई को वे बिना अमेरिका के ही सही अंजाम तक पहुँचाने में सफल हो सकें ?
                                                          अमेरिका किसी भी मसले में तब तक कुछ भी नहीं बोलता है जब तक उसके हितों पर आंच न आने लगे और इस बार दो अमेरिकी पत्रकारों को सर कलम किये जाने के बाद से ही अमेरिका को अपने हितं की बात याद आई है जबकि आईएस काफी दिनों से सीरिया में सक्रिय है और अमेरिका अपनी आँखें बंद किये हुए था ? आज भी सीरिया अमेरका को अपनी धरती पर आतंकियों के खिलाफ हवाई हमले करने से पहले समन्वय बनाने की बात पर ज़ोर दे रहा है और तुर्की ने नाटो के सदस्य होने के बाद भी इस अमेरिकी गठबंधन के लिए हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है. इस तरह की बातों के बीच कुछ बड़े और सटीक हवाई हमले करके आईएस को कुछ दिनों तक रोका तो जा सकता पर जब तक आतंक की सही परिभाषा निर्धारित न हो और पडोसी देशों से इस अभियान को पूरा सहयोग न मिले तब तक ऐसे किसी भी अभियान को सफल नहीं बनाया जा सकता है. ओसामा को पाक ने सदैव अपनी संरक्षा में ही रखा और अमेरिका से चरमपंथियों के खिलाफ चल रहे कथित युद्ध में वह खुले तौर पर अमेरिका के साथ ही रहा तो इस तरह के सहयोगी होने पर अमेरिका को कितनी सफलता मिलेगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा. 
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें