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बुधवार, 15 अक्तूबर 2014

चुनाव, शालीनता और नेता

                                                           अच्छा ही है कि वर्तमान में हरियाणा और महाराष्ट्र में चल रहे चुनाव प्रचार के रुक जाने के बाद देश के नेताओं की ज़बानों को कुछ दिनों के लिए ताले लग जायेंगें क्योंकि पिछले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य में सामने आने पर जिस तरह से प्रचार का स्तर नीचे ही गिरता चला गया था उसको रोकने का चुनाव आयोग के पास भी कोई समाधान नहीं था. पिछले आम चुनावों को संभवतः सबसे अभद्र चुनाव प्रचार ही माना जा सकता है क्योंकि जिस तरह से मुद्दो को पीछे छोड़कर नेताओं और उनके परिवारों पर हमले किये गए उनसे देश का हित कभी भी नहीं हो सकता है. ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले देश में इस तरह के बयान देने वाले नेता नहीं हुआ करते थे पर पीएम पद के लिए नामित व्यक्ति द्वारा जिस तरह से अपने वाक्चातुर्य का निजी हमले करने के लिए प्रदर्शन किया गया वैसी मिसाल आज तक देखने को नहीं मिली थी. देश में आज़ादी के बाद से चुनाव होते रहे हैं पर सभी दलों का इस तरह का अशोभनीय प्रदर्शन कभी भी देखने को नहीं मिला था.
                                                           इस बार महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा का गठजोड़ के टूटने के बाद जिस तरह से दोनों दलों के नेताओं ने एक दूसरे पर हमले किये वे भी अनावश्यक ही थे. हालाँकि इस पूरे प्रचार में चुनाव बाद की किसी भी सम्भावना पर विचार करते हुए पीएम ने शिवसेना पर निजी हमले तो नहीं किये पर सत्ता को अपने से दूर जाते हुए देख शिवसेना ने भी वही भाषा बोलनी शुरू कर दी जो पिछले चुनाव में मोदी द्वारा व्यापक रूप से प्रयोग में लायी जाती थी. चूंकि शिवसेना और भाजपा एक ही विचारधारा से आते हैं और उनके प्रचार का स्तर भी एक जैसा ही हुआ करता है तो इस स्थिति में भाजपा की तरफ से अघोषित रोक भी शिवसेना को तीखी और निजी बयानबाज़ी से नहीं रोक पायी और उसके मुखपत्र सामना ने अपने सम्पादकीय में जिस तरह से खुले आम पीएम के पिता तक को घसीटने की कोशिश की वह इन दलों के वैचारिक स्तर को ही प्रदर्शित करती है.
                                                       महाराष्ट्र में भाजपा को सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आने की पूरी आशा है और उस स्थिति में यदि उसे बहुमत के लिए किसी दल के सहयोग की आवश्यकता पड़ गयी तो उस समय के लिए ही भाजपा और मोदी की तरफ से शिवसेना को पूरी तरह से बयानों से दूर ही रखा गया था पर स्थानीय स्तर अलगाव इतना ज़बरदस्त और शिवसेना के कार्यकर्ताओं में इतना गुस्सा था कि उनकी तरफ से हर तरह की शालीनता को किनारे ही रख दिया गया. चुनाव होना लोकतंत्र का एक आवश्यक हिस्सा है पर चुनावों में इस तरह से निजी स्तर के घटिया आरोप लगाकर जनता से तालियां तो बटोरी जा सकती हैं पर उससे लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण हिस्से की शुचिता को नहीं बनाये रखा जा सकता है. पिछले चुनाव में मोदी के चुनावी भाषणों का जो स्तर रहा करता था इस बार शिवसेना ने उसका जवाब भी दे दिया है तो संभवतः इस तरह के निजी हमले कर प्रचार करने वाले पीएम भी अब आने वाले समय में देश में मुद्दों आधारित राजनीति करने की तरफ सोचना शुरू कर सकें.  
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