मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 29 दिसंबर 2014

कांग्रेस - राजनैतिक उतार चढाव

                                                            २८ दिसंबर को अपने स्थापना के १३० वर्ष पूरे करने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सामने आज जिस तरह से विश्वसनीयता का संकट है उसके चलते अब उसके पास अपने लिए खोई हुई ज़मीन तलाशने के लिए बहुत सारे विकल्प खुले हुए हैं. पूरी दुनिया में राजनीति में सक्रिय दलों के सामने इस तरह के संकट सदैव ही आते रहते हैं जब जनता का उनके सरकार चलाने के तौर तरीकों से मोह भंग होने लगता है और वह उन्हें सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया करती है. २००४ के आम चुनावों में जिस तरह से सभी को यह लग रहा था कि अटल के नेतृत्व में राजग सरकार दोबारा से सत्ता में आ सकती है तो उस समय कांग्रेस को समर्थन देते हुए जनता ने बड़े बड़े राजनैतिक पंडितों को चौंका दिया था उसके बाद भाजपा में नेतृत्व के संकट के चलते और कांग्रेस की बेहतर नीतियों के चलते जिस तरह से उसे दोबारा सत्ता मिली वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं था. लगातार दोबारा सरकार बनाने के बाद पार्टी के कार्यकर्ताओं में जो ज़मीनी हकीकत समझने की ज़रुरत बनी रहनी चाहिए थी वह पूरी तरह से गायब हो गयी और पार्टी धीरे धीरे हाशिये पर जाने लगी.
                                                     लोकसभा में संख्या बल में कमज़ोर सरकार जिस तरह से सहयोगियों के दबाव में काम करती है उसका खामियाज़ा कांग्रेस ने खूब भुगता है क्योंकि उसके सहयोगियों पर भ्रष्टाचार के जितने आरोप लगे उसके बाद वह खुद का बचाव भी नहीं कर पायी जिसके चलते जनता में यह सन्देश चला गया कि कांग्रेस भी हर तरह के भ्रष्टाचार में शामिल है. यह भी सही है कि जिन लोगों के विरुद्ध किसी ही तरह की अनियमितता मिलती गयी वे कानून के अनुसार जेल भी जाते रहे पर पार्टी द्वारा जनता के लिए जो भी अच्छे काम किये जाते रहे उनकी धमक इन भ्रष्टाचार के आरोपों में लगातार दबती ही चली गयी और २०११ से भाजपा ने जिस तरह से संसद के काम को एक रणनीति के तहत महत्वपूर्ण मसलों पर बाधित करना शुरू किया उससे सरकार के लिए निर्णय लेना और भी कठिन होता चला गया. उस समय की जो नीतियां प्रस्तावित थीं यदि उनको पारित करवाने में सरकार को सफलता मिलती तो देश में सुधारों का दौर पहले ही शुरू हो गया होता पर इसका भी कोई तोड़ खोजने के स्थान पर पार्टी ने कुछ भी ठोस नहीं किया.
                                              दस साल की लगातार सत्ता गंवाने और आज केवल कुछ राज्यों में सत्तारूढ़ होने के बाद पार्टी को यह समझ में आने लगा है कि जनता के पास जाये बिना कुछ भी ठीक नहीं किया जा सकता है क्योंकि जब तक जनता के साथ जुड़ाव नहीं होगा तब तक सही मुद्दों को पहचान पाना कठिन ही रहने वाला है. हर व्यक्ति के लिए काम करने का अपना ढंग होता है और सत्ता से बाहर होने पर अब पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को भी यह आभास हो गया है कि केवल दिल्ली और राज्यों की राजधानियों में बैठकर सरकार नहीं बनायीं और चलाई जा सकती है इसके लिए मंत्री पद भोग चुके लोगों को अब जनता के मुद्दों को उठाते हुए सरकार पर हमलावर होना ही होगा जिससे किसी भी मुद्दे पर सरकार से खिन्न लोगों की बातों पर संघर्ष करने की तरफ बढ़ा जा सके. इस दिशा में पार्टी के पास अगले कई वर्षों तक काम करने के अवसर हैं और सरकार की कमियों को खोजकर उन पर दबाव बनाने की नीति पर चलने से ही उसका पुराना वोटबैंक उस तक वापस लौट सकता है पर यह काम करने के लिए अब देश भर में धूल फाँकने का समय आ चुका है और यदि पार्टी अब इसमें चूकती है तो राजग सरकार की गलतियों के इंतज़ार में सरकार बनाने के लिए उसे बहुत लम्बा समय लगने वाला है.         
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