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शनिवार, 10 जनवरी 2015

खादी ग्रामोद्योग का निजीकरण ?

                                               आज़ादी के पहले से ही देश में स्वदेशी की अलख जगाने और विदेशी कपड़ों का बहिष्कार कर खादी पहनने के जूनून ने गुलाम भारत में भी खादी को पूरी तरह से ज़िंदा रखने के लिए जहर तरह के पापड़ बेले थे आज़ादी के बाद भी खादी स्वाभिमान का प्रतीक बनकर उभरी जिससे सत्ता में बैठे लोगों में आज़ादी के बाद खादी का उपयोग करने वाले नेताओं के चलते खादी को व्यापक स्तर पर सरकारी समर्थन भी मिलता रहा. प्रारम्भ में इस व्यवस्था के साथ कुटीर उद्योगों के जुड़ने से जहाँ खादी घर घर तक पहुँचने लगी वहीं इस क्षेत्र में लाभ की संभावनाओं को टटोलते हुए स्थानीय स्तर पर भी खादी ग्रामोद्योग विभाग द्वारा पंजीकरण के माध्यम से समितियां बनाकर उत्पादन को बढ़ाने का लक्ष्य भी रखा गया और एक समय में उसे पाने में सफलता भी मिलने लगी थी पर सरकारी स्तर से इन समितियों पर कड़े नियंत्रण के अभाव और मिलने वाली अनुदान राशि के चक्कर में नयी बनने वाली समितियों ने अपने वास्तविक उद्देश्य को भूलकर बाज़ार के माल को चोर रास्ते से खरीदना और बेचना शुरू कर दिया जिससे इनका मूल उद्देश्य ही पीछे छूट गया.
                                   भाजपा की प्राथमिकता में खादी ग्रामोद्योग कभी भी नहीं रहा है जिस कारण से अटल सरकार ने भी इसके अनुदानों और विकास के लिए चलने वाली योजनाओं पर काफी हद तक अंकुश लगा दिया था और यदि २००४ में वह सरकार दोबारा वापस सत्ता में आई होती तो आज खादी एक इतिहास का ही हिस्सा बन चुकी होती. मनमोहन सरकार भी वित्तीय प्रबंधन के स्तर पर इस क्षेत्र में व्याप्त अनियमितताओं के चलते इसे पूरा समर्थन देने से पहले इसकी कार्य प्रणाली और ज़िम्मेदारी में बदलाव की हिमायत किया करती थी पर खादी कांग्रेस के लिए एक उत्पाद से अधिक पहचान का मामला है तो उसने मनमोहन सिंह को इस दिशा में इसे बंद करने जैसी किसी भी योजना पर काम करने से रोक दिया था. आज पीएम भी अपने पहले मन की बात कार्यक्रम में खादी को बढ़ावा देने की बात तो करते हैं पर इस विभाग के पुनरुद्धार के लिए जिस तरह की इच्छा शक्ति की आवश्यकता होनी चाहिए वे उसका प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं.
                                अब यह ख़बरें दिल्ली में ज़ोर पकड़ती जा रही हैं कि पूरे खादी ग्रामोद्योग विभाग पर नीतियों के मामले में पतंजलि आश्रम को कमान सौंपने की बातें सत्ता के गलियारों में चल रही हैं तो उसके बाद इस मुद्दे पर भी जमकर राजनीति होने की सम्भावना दिखाई देने लगी है. किसी भी विभाग के बेहतर सञ्चालन के लिए यदि किसी व्यक्ति की योजनाओं को लागू किया जाये तो उसमें कोई बुराई नहीं है पर क्या पतंजलि के सभी उत्पाद निचले स्तर पर कामगारों को उस तरह से बढ़ावा देने की तरफ जाते हैं और क्या वे अपने यहाँ मशीनों से काम नहीं करवाते हैं ? खादी को जन जन का हिस्सा बनाने के लिए जो संघर्ष किये गए थे आज उन पर बाज़ार हावी होता दिख रहा है. हर बात में गांधी जी का उदाहरण देने वाली सरकार और उसके मुखिया गांधी जी की इस वैचारिक पहचान का गला किस तरह से घोंट सकते हैं अब यही देखने का विषय है. हज़ारों की संख्या में इस विभाग से जुड़े हुए लोगों को आखिर किस तरह से सरकार आगे बढाती है यह भी देखने का विषय होने वाला है. सरकार ने जिस तरह से महत्वपूर्ण मामलों में सदन में सार्थक बहस के स्थान पर अध्यादेश का मार्ग चुनने की तरफ कदम बढ़ा हैं वे भी नीतिगत मामलों में सरकार की कार्यशैली पर बड़ा प्रश्नचिन्ह लगाते हैं.        
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