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मंगलवार, 10 फ़रवरी 2015

बिहार और संविधान

                                                                     काफी लम्बे समय के बाद देश में एक बार फिर से बिहार में १९९८ के यूपी जैसी स्थिति सामने आई है और सम्भावना इस बात की दिख रही है कि अल्पमत में आये और जेडीयू से निष्कासित सीएम मांझी को विधान सभा में बहुमत साबित करने का अवसर और समय राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी द्वारा दिया जायेगा क्योंकि पहले जिस तरह से मांझी द्वारा दिल्ली में यह दावा किया गया था कि वे मंत्रमंडल का विस्तार करना चाहते हैं उससे मामला उलझ सा गया लगता है. यदि मांझी द्वारा इस तरह के दावे न किये जाते तो संभवतः केसरी नाथ उनसे आगामी बजट सत्र में पहले बहुमत साबित करने केलिए कह सकते थे पर इस मामले में मांझी और भाजपा के आंकलन में गड़बड़ी रह गयी और जेडीयू में उतने बड़े पैमाने पर विभाजन नहीं हुआ जिसकी उम्मीद की जा रही थी. अब जब मामला जानबूझकर उलझाया जा रहा है तो बिहार के राज्यपाल के साथ ही केंद्र सरकार पर भी दबाव बनने वाला है क्योंकि इसी वर्ष चुनावी बिसात बिछने से अब सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों के लिये ही परिस्थितियां आसान नहीं रहने वाली हैं.
                             राज्यपाल के पास ऐसी परिस्थिति में खुले तौर पर सबसे सुगम संवैधानिक विकल्प यही होता है जिसमें वह सरकार से सदन में अपना बहुमत साबित करने के लिए कह सकते हैं पर इसके लिए राजयपाल द्वारा अनावश्यक रूप से जो समय लिया जा रहा है वह चुनावी वर्ष में केवल भाजपा को संभावित लाभ दिलाने के चलते ही लग रहा है. बिहार की जाति आधारित राजनीति में विधान सभा चुनावों में इसी दम पर बहुत कुछ दांव पर लगा रहने वाला है तो किसी के लिए भी इसकी अनदेखी करना आसान नहीं रहने वाला है. सदन में जब सत्ताधारी दल के अध्यक्ष के रूप में शरद यादव की तरफ से राज्यपाल को सूचित कर दिया गया है कि मांझी अब उसके विधान मंडल दल के नेता नहीं हैं और उनके स्थान पर नितीश को नया नेता चुन लिया गया है तो उन्हें सीधे तौर पर कार्यवाही करते हुए मांझी इस्तीफ़ा न देने की स्थिति उन्हें बर्खास्त करने या सदन का विश्वास हासिल करने के लिए कहना चाहिए पर वे जिस तरह से जेडीयू के इस मामले का राजनैतिक रूप से भाजपा के लिए दुरूपयोग कर रहे हैं उसका कोई औचित्य नहीं है.
                            जब एक बार यह तय किया जा चुका है कि किसी भी सरकार के लिए सदन में ही विश्वास मत हासिल करने से अच्छा कोई विकल्प नहीं हो सकता है तो इस तरह से राजनैतिक अनिश्चितता को बनाये रखने से जनता में क्या सन्देश जाने वाला है ? यह भी पूरी तरह से सही है कि विगत में केंद्रीय सत्ताधारी दलों के द्वारा राज्यपाल के पद का इसी तरह से दुरूपयोग भी किया जाता रहा है पर कल्याण सिंह- जगदम्बिका पाल के मामले में एक बार सदन की सर्वोच्च्च्ता साबित हो चुकी है तो उस पर तुरंत निर्णय लेने के स्थान पर समय काटने से क्या खरीद फरोख्त का समय नहीं दिया जा रहा है ? जनता ने पिछली सरकारों के साथ भी सब कुछ देखा था और आज भी वह नैतिकता की बातें करने वाली भाजपा की स्थिति को देख रही है जो कहने और करने में कितनी अलग है संभवतः सबके सामने आ रहा है और इसीलिए जनता को वह भी राजनीति करने में किसी मामले में पार्टी विद डिफरेंस कहीं से भी नहीं लगती है. संवैधानिक संकट की परिस्थितियों में सरकार को बचाये जाने के लिए जिस तरह के उदाहरण अभी तक सामने आये हैं आज भी उन पर अमल करने से केंद्र सरकार पता नहीं क्यों डर रही है  शायद उसे इसी बहाने से बिहार में विकास एक स्थान पर जातिगत राजनीति का अगला सबक सीखने का अच्छा अवसर मिल रहा है जिसे वह पूरी तरह से भुनाना भी चाह रही है.        
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