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मंगलवार, 17 मार्च 2015

जुलिओ फ्रांसिस रिबेरो का डर

                                                      १९५३ बैच के आईपीएस अधिकारी जुलिओ फ्रांसिस रिबेरो जिन्होंने अपने कड़े क़दमों के दम पर अपनी कड़क छवि बनायी थी और जिन्होंने अपने सेवाकाल में १९८२ से ८५ तक मुंबई पुलिस कमिश्नर, केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के महानिदेशक और गुजरात पुलिस के मुखिया के तौर पर भी काम किया था और अस्सी के दशक में आतंकी घटनाओं से जूझ रहे पंजाब के पुलिस प्रमुख रहते हुए उन्होंने एक बार अपने परिवार पर हुए हमले को भी झेला था. आज मुंबई में पूरी सुरक्षा के बीच रहने वाले इस सख्त अधिकारी को यदि यह लगने लगने लगा है कि वे देश में असुरक्षित और गैर ज़रूरी हैं तो इसके कारणों की तह तक जाने की आवश्यकता भी है. बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने वाले रिबेरो ने आज के माहौल में ईसाई समुदाय पर लगतार होने वाले हमलों को देखते हुए अपनी यह चिंता देश के बड़े अख़बार में एक लेख में ज़ाहिर की है जिससे संसद के पहले से ही अर्ध-बाधित सत्र में सरकार को घेरने का एक और मौका विपक्षियों को बैठे बिठाये ही मिल गया है और निश्चित तौर पर इस मामले पर भी विपक्ष फिर से पीएम के बयान की मांग ही करने वाला है जिससे मोदी सरकार के लिए सदन में अनावश्यक बवाल बढ़ सकता है.
                                रिबेरो की यह चिंता अनावश्यक भी नहीं कही जा सकती है क्योंकि मोदी की नाराज़गी के बाद भी आज भाजपा के मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के अन्य अनुषांगिक संगठनों द्वारा विभिन्न मुद्दों पर हमलावर होने का क्रम लगातार जारी है वह सदन से सड़कों तक मोदी सरकार के लिए बड़ी आंतरिक चुनौती के रूप में सामने आता जा रहा है. संघ के लव जिहाद और घर वापसी जैसे कार्यक्रमों के लिए आज भी संघ से परोक्ष रूप में समर्थन मिलने के कारण ही कुछ भाजपाई और धार्मिक गुरु लगातार भड़काने वाले बयान जारी करने से बाज़ नहीं आ रहे हैं जिससे समाज में बंटवारा दिखाई देता है और छोटे और निचले स्तर तक इस अलगाव को महसूस किया जा सकता है. आज भाजपा और संघ के नेता उन राज्यों में इस तरह के मुद्दों को बड़ी हवा देने में लगे हुए हैं जहाँ पर आगामी समय में चुनाव होने वाले हैं क्योंकि धार्मिक आधार पर होने वाले इस विभाजन का सीधे तौर पर भाजपा को ही लाभ मिलता है जिसे वह हर मामले में भुनाने से नहीं चूकने वाली है और खुद मोदी के इन मामलों पर दिखाए जाने वाले तेवर भी कहीं से कोई असर डालते नहीं दिखाई देते हैं.
                               धार्मिक आधार पर इस तरह की राजनीति खुले तौर पर हमेशा से ही भाजपा का मुख्य एजेंडा रहा है पर इस बार जिस तरह से मज़बूत बहुमत के साथ विकास को एक बड़ा मुद्दा बनाकर सरकार ने सत्ता संभाली है तो उस स्थिति में सरकार को मज़बूती देने के स्थान पर उसे कमज़ोर साबित करने वाले इस तरह का क़दमों से क्या मोदी और देश की छवि मज़बूत हो सकती है ? इस बात का अंदाज़ा खुद मोदी को भी है कि यदि समाज में इसी तरह से बंटवारा होता रहा तो जिस विदेशी पूँजी निवेश के दम पर वो भारत को आगे ले जाने का सपना देख रहे हैं उसका प्रवाह कम हो जाने वाला है तभी वे एक बार खुलकर इस मसले पर संघ से अपनी नाराज़गी भी दिखा चुके हैं पर लगता है संघ भी केवल उनके विकास के मुद्दे के भरोसे नहीं रहना चाहता है और वह अपने पुराने रूप में काम आगे बढ़ाना चाहता है क्योंकि यदि विकास का दावा पूरा नहीं हो पाये तो इस बंटवारे की राजनीति का लाभ उठाया जा सके. मोदी के मज़बूत होने का भ्रम खुद संघ द्वारा ही तोडा जा रहा है क्योंकि मोदी जिस राजनीति का विरोध कर रहे हैं संघ भाजपा की शीर्ष समितियों में उसी राजनीति को आगे बढ़ाने के रास्ते पर चल रहा है इससे दूसरी बात यह भी समझ में आती है कि मोदी ने केवल दिखावे के लिए खुलेआम इस तरह की राजनीति का विरोध करने का मन बनाया है पर अंदर से वे संघ की इस राजनीति को पूरी तरह से भाजपा में विकसित करना भी चाहते हैं.       
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