बिहार में कक्षा १० की परीक्षाएं शुरू होने के बाद से ही जिस तरह से बड़े पैमाने पर नक़ल किये जाने के समाचार पूरे देश की मीडिया में छाये हैं उसक बाद बिहार की छवि और भी ख़राब होने की पूरी संभावनाएं बढ़ गयी हैं. एक राज्य जहाँ से मेधावियों के लगातार देश की महत्वपूर्ण परीक्षाओं में सफल होने की अनगिनत गाथाएं मौजूद हैं वहां के निचले स्तर की शिक्षा का यह हाल देखकर कहीं न कहीं से पूरी बिहार के समाज की प्रवृत्ति के बारे में ही पता चलता है. ऐसा भी नहीं है कि पूरे राज्य में ही नकल के भरोसे इस तरह की परीक्षाएं करायी जाती हैं पर इस सब के चक्कर में बिहार के उन मेधावी छात्र / छात्राओं को भी इसी श्रेणी में गिना जाने लगेगा जिसमें ये नकलची लोग पूरी बेशर्मी के साथ लगे हुए हैं. वैसे तो नक़ल पूरे देश में ही एक बड़ी समस्या रहा करती है पर कुछ बिहार व यूपी जैसे राज्यों में जहाँ प्राथमिक / माध्यमिक शिक्षा को केवल औपचारिक शिक्षा ही अधिक माना जाने लगा है उसके बाद से स्थितियां बहुत विषम होती चली जा रही हैं क्योंकि कुछ नियमों के चलते बच्चों के प्रति सहानुभूति का नियम आने के बाद बच्चे बिना पढ़े ही पास होने के सपने देखने लगते हैं.
नक़ल की समस्या अपने आप में प्रशासनिक के साथ सामाजिक समस्या भी अधिक ही है क्योंकि जब तक अभिभावक अपने स्तर से बच्चों को नक़ल करने की कोशिशें करना नहीं बंद करेंगें तब तक किसी भी दशा में निचले स्तर पर सुधार संभव नहीं है और परीक्षा की शुचिता को इसी तरह से तार-तार किये जाने की घटनाएँ सामने आती ही रहने वाली हैं. इस पूरे प्रकरण में जो सबसे खतरनाक प्रवृत्ति सामने आ रही है वह यह है कि पहले कुछ नक़ल माफियाओं के हाथों में सीमित जगहों पर होने वाली नक़ल आज बिहार में एक सामाजिक बुराई के रूप में सामने आ रही है. निश्चित तौर पर जिस राज्य में सुपर-३० जैसे प्रयास पूरी सफलता के साथ चल रहे हैं और वे पूरी निरंतरता के साथ अपने लक्ष्य को प्रति वर्ष प्राप्त भी कर रहे हैं वहां पर माध्यमिक शिक्षा का ऐसा हाल बड़ी सामाजिक समस्या की तरफ ही इंगित करता हैं. आज भी देश की शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में बिहार के मेहनती बच्चे सफल होते रहते हैं और अपने राज्य का नाम रोशन करते रहते हैं पर उस सब के बीच इस तरह की खबरें पूरे समाज की स्थिति को बिगाड़ने का काम ही किया करती हैं और अब इससे मुक्ति पाने के लिए सही मार्ग को चुनना भी आवश्यक हो चुका है.
निश्चित तौर पर इस पूरी प्रक्रिया में विद्यालय प्रबन्धन भी ज़िम्मेदार है क्योंकि जिस परिस्थितियों में बच्चों को कुछ भी पढ़ाया ही नहीं जाता है तो वे परीक्षाओं में कुछ करने की स्थिति में ही नहीं होते हैं तो इस पूरे खेल में विद्यालयों के प्रबंधन का खेल सामने आ जाता है. सामान्य नियम के तहत हर राज्य में नक़ल रोकने के लिए सरकारों की तरफ से पूरे प्रबंध किये जाते हैं और बिहार को देखकर यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार अपनी इस ज़िम्मेदारी को निभा पाने में पूरी तरह से असफल हो गयी है. जो माहौल लम्बे समय से चला आ रहा है उससे निपटने के लिए भी सरकार को जिस तरह से काम करना चाहिए था निश्चित तौर पर वह उसमें फेल हो गयी है अब भी समय है कि अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों को पीछे छोड़ते हुए नितीश सरकार को बची हुई परीक्षाओं के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए जिससे परीक्षाओं की गरिमा को बनाये रखा जा सके. यह भी सही है कि माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाले बहुत सारे छात्र पहली बार वोट देने के लायक होने वाले होते हैं तो कोई भी सरकार चुनावी वर्ष में ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती है फिर भी बिहार की परीक्षाओं को उनकी गरिमा वापस लौटाने के लिए अब नितीश कुमार को भरपूर सख्ती करनी चाहिए क्योंकि खुलेआम नक़ल उनकी सुशासन के हर दावे को दृढ़ता के साथ झुठलाती हुई नज़र आती है.
मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...
नक़ल की समस्या अपने आप में प्रशासनिक के साथ सामाजिक समस्या भी अधिक ही है क्योंकि जब तक अभिभावक अपने स्तर से बच्चों को नक़ल करने की कोशिशें करना नहीं बंद करेंगें तब तक किसी भी दशा में निचले स्तर पर सुधार संभव नहीं है और परीक्षा की शुचिता को इसी तरह से तार-तार किये जाने की घटनाएँ सामने आती ही रहने वाली हैं. इस पूरे प्रकरण में जो सबसे खतरनाक प्रवृत्ति सामने आ रही है वह यह है कि पहले कुछ नक़ल माफियाओं के हाथों में सीमित जगहों पर होने वाली नक़ल आज बिहार में एक सामाजिक बुराई के रूप में सामने आ रही है. निश्चित तौर पर जिस राज्य में सुपर-३० जैसे प्रयास पूरी सफलता के साथ चल रहे हैं और वे पूरी निरंतरता के साथ अपने लक्ष्य को प्रति वर्ष प्राप्त भी कर रहे हैं वहां पर माध्यमिक शिक्षा का ऐसा हाल बड़ी सामाजिक समस्या की तरफ ही इंगित करता हैं. आज भी देश की शीर्ष प्रतियोगी परीक्षाओं में बिहार के मेहनती बच्चे सफल होते रहते हैं और अपने राज्य का नाम रोशन करते रहते हैं पर उस सब के बीच इस तरह की खबरें पूरे समाज की स्थिति को बिगाड़ने का काम ही किया करती हैं और अब इससे मुक्ति पाने के लिए सही मार्ग को चुनना भी आवश्यक हो चुका है.
निश्चित तौर पर इस पूरी प्रक्रिया में विद्यालय प्रबन्धन भी ज़िम्मेदार है क्योंकि जिस परिस्थितियों में बच्चों को कुछ भी पढ़ाया ही नहीं जाता है तो वे परीक्षाओं में कुछ करने की स्थिति में ही नहीं होते हैं तो इस पूरे खेल में विद्यालयों के प्रबंधन का खेल सामने आ जाता है. सामान्य नियम के तहत हर राज्य में नक़ल रोकने के लिए सरकारों की तरफ से पूरे प्रबंध किये जाते हैं और बिहार को देखकर यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार अपनी इस ज़िम्मेदारी को निभा पाने में पूरी तरह से असफल हो गयी है. जो माहौल लम्बे समय से चला आ रहा है उससे निपटने के लिए भी सरकार को जिस तरह से काम करना चाहिए था निश्चित तौर पर वह उसमें फेल हो गयी है अब भी समय है कि अपने तात्कालिक निहित स्वार्थों को पीछे छोड़ते हुए नितीश सरकार को बची हुई परीक्षाओं के लिए कड़े कदम उठाने चाहिए जिससे परीक्षाओं की गरिमा को बनाये रखा जा सके. यह भी सही है कि माध्यमिक स्तर पर पढ़ने वाले बहुत सारे छात्र पहली बार वोट देने के लायक होने वाले होते हैं तो कोई भी सरकार चुनावी वर्ष में ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती है फिर भी बिहार की परीक्षाओं को उनकी गरिमा वापस लौटाने के लिए अब नितीश कुमार को भरपूर सख्ती करनी चाहिए क्योंकि खुलेआम नक़ल उनकी सुशासन के हर दावे को दृढ़ता के साथ झुठलाती हुई नज़र आती है.
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