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बुधवार, 25 मार्च 2015

श्रेया सिंघल, ६६ ए और अभिव्यक्ति की आज़ादी

                                                 सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानून की पढ़ाई कर रही और वकीलों के परिवार से आने वाली २४ वर्षीय श्रेया सिंघल की आई टी एक्ट की धारा ६६ ए को रद्द करने की याचिका पर अपना फैसला सुनते हुए जिस तरह से इसे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उलंघन करने वाली बताते हुए रद्द कर दिया है उससे आने वाले समय में इस पर और भी बहस होने की गुंजाईश बची हुई है. इंटरनेट पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ किस तरह से लिया जाये यह अपने आप में बहुत विवाद का विषय है क्योंकि आज बढ़ते हुए सोशल मीडिया माध्यम से आम लोगों के हाथों में एक महत्वपूर्ण मंच आ गया है जहाँ पर वे अपनी सभी तरह की गतिविधियों को साझा करने के साथ ही देश दुनिया की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और अन्य सभी संभावित मुद्दों पर चर्चा करने में सक्षम हो चुके हैं. यदि गौर से देखा जाये तो भारत जैसे देश में लोगों द्वारा अभिव्यक्ति की आज़ादी का जितने बड़े स्तर पर दुरूपयोग किया जाता है उतने बड़े स्तर पर हमारे पास पुलिस और अन्य संसाधन उपलब्ध नहीं हैं जिससे कई बार लापरवाही या अनभिज्ञता के चलते बहुत समस्या उत्पन हो जाती है.
                                   केंद्र सरकार और कोर्ट का यह मानना भी बिलकुल सही है कि अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े हुए इस मसले को स्वयं नागरिकों पर ही छोड़ा जाना चाहिए क्योंकि जिस स्तर पर इसके दुरूपयोग की सम्भावना है इसे वहीं से इसे स्व नियंत्रण के माध्यम से रोका जाना चाहिए. किसी भी व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आज़ादी किस तरह से दूसरों के हितों के खिलाफ जा रही है यह पहले से ही देश के अन्य कानूनों में स्पष्ट रूप से निर्देशित है फिर ६६ ए जैसी अस्पष्ट धारा का होना कहीं न कहीं से लोगों के मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन ही कहा जा सकता है तभी कोर्ट ने इस धारा को ही असंवैधानिक घोषित कर दिया है. इससे लोगों को अभिव्यक्ति की आज़ादी तो मिली पर सामाजिक और धार्मिक उन्माद के क्षणों में इस अभिव्यक्ति की आज़ादी का जिस तरह से खुले पैमाने पर दुरूपयोग किया जाता है तो उससे निपटने के लिए क्या हमारी सरकारों के पास इतने संसाधन उपलब्ध हैं या फिर वह पूरी तरह से पुलिस और भारतीय दंड संहिता का दुरूपयोग कर लोगों को जेल भेजना का काम करती ही रहने वाली है ?
                                     इस पूरी कवायद में अब सारा दारोमदार आम लोगों पर ही आ गया है क्योंकि जब तक हम नागरिक अपनी ज़िम्मेदारियों को सही तरह से समझते हुए इस बात को आगे अपने आप नहीं मानेंगें तब तक हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी पूरी तरह से अधूरी ही कही जाएगी. हमारी अभिव्यक्ति की आज़ादी केवल वहीं तक सीमित है जहाँ से दूसरे की अभिव्यक्ति की आज़ादी शुरू हो जाती है. किसी की नीति, समाज, कुरीति या व्यक्ति की आलोचना शालीन शब्दों में भी की जा सकती है उसके लिए मर्यादाओं की सीमा लांघने का कोई मतलब नहीं बनता है शब्दों का चयन शालीन होने से जहाँ हम अपनी बात कह भी सकते हैं वहीं दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचाने से भी बच सकते है. आम तौर पर हम भारतीय जिस तरह से अफवाहों पर आसानी से भरोसा कर लिया करते हैं यह उसका ही दुष्परिणाम है कि सरकारों को हमारी आज़ादी को इस तरह से अघोषित कानून के माध्यम से नियंत्रित करने की आवश्यकता महसूस होने लगती है. कानून भले ही कैसे भी हों पर आम नागरिकों के दिल में उन प्रति सामान होना बहुत आवश्यक है और आज कानून के अनुपालन में सरकारों को यह भी समझना होगा कि आम लोगों के लिए समस्याएं सामने आने पर भी कानून उसी तेज़ी से काम करे जैसा वह नेताओं या अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के लिए किया करता है जिससे लोगों का भरोसा कानून में और भी मज़बूत हो और उसका सम्मान डर से नहीं वरन दिल से करने को प्रेरित हो सकें.   
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