मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

गुरुवार, 26 मार्च 2015

भूमि अधिग्रहण से भू उपयोग में बदलाव तक

                                                             हरियाणा विधान सभा में पेश की गयी कैग रिपोर्ट में इस बात का अंदेश लगाया गया है जिसमें उसकी तरफ से टिप्पणी की गयी है कि इस मामले में "विशेष आवेदक को अनुचित लाभ देने की सम्भावना से खारिज नहीं किया जा सकता है." देखने में तो यह सामान्य सी टिप्पणी ही लगती है पर इसमें सरकारों को संविधान द्वारा दिए गए उस असीमित अधिकार पर ही बहस शुरू कर दी है कि क्या किसी भी निर्वाचित सरकार को इतने अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए जिसमें वह अपने हितों को साधने के लिए कुछ भी करने तक स्वतंत्र हो ? अशोक खेमका ने पहली बार इस मामले को उजागर करते हुए सभी लैंड डील्स को रद्द कर दिया था जबकि तत्कालीन हरियाणा सरकार का कहना था कि उसने इस काम में किसी भी तरह की कोई गलत प्रक्रिया नहीं अपनायी है. अधिकारों के सुविधा के अनुसार उपयोग / दुरूपयोग करने और कानून की कमियों में से ही बचाव का रास्ता खोज लेने की प्रवृत्ति पर आखिर आने वाले समय में किस तरह से रोक लगायी जा सकती है आज देश के लिए यह सबसे बड़ी चिंता का विषय बन चुका है क्योंकि लगभग ऐसे ही कानून हर राज्य में पूरे देश में लागू हैं.
                                किसानों से सस्ते मूल्य पर भूमि का अर्जन कर बाद में उसके भू-उपयोग को बदल कर सदैव ही देश में सरकारों के करीब रहने वाले कुछ लोगों को हर राज्य में लाभ पहुँचाया जाता रहा है पर यहाँ पर सबसे विचारणीय बात यही है कि आखिर कोई सरकार इतनी शक्तिशाली कैसे हो सकती है कि वह कानून की मनमानी व्याख्या करने से भी न चूके ? पिछले एक दशक में देश में जिस तरह से नागरिक जागरूकता के साथ ही न्यायिक सक्रियता बढ़ी है तभी से इस तरह के कमज़ोर कानूनों की चपेट में नीतियों से लगाकर राजनेता तक आने लगे हैं. इसके लिए आखिर किसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि आजादी के बाद से आज तक देश में स्थापित सभी नए पुराने दल कहीं न कहीं किसी न किसी राज्य में शासन कर चुके हैं फिर भी उनकी नज़र कभी इन कानूनों पर तब नहीं पड़ती है जब वे सत्ता में होते हैं पर विपक्ष में पहुँचते ही उन्हें यही कानून काले लगने लगते हैं ? नेताओं की देश के बारे में इस तरह की सुविधाभोगी सोच ने ही देश का बहुत नुकसान पहले ही कर दिया है अब इसे पूरी तरह से बदलने की बहुत आवश्यकता है.
                             देश में पिछले दशक से लागू हुए सूचना के अधिकार कानून के लागू होने के बाद से जिस तरह से इन अजीब तरह के कानूनों और नीतियों के बारे में आम जनता को सब कुछ पता चलने लगा ई उससे भी स्थितियां बेहतर हुई हैं. निसंदेह पिछली संप्रग सरकार इन कानूनों में आवश्यक सुधार करने में विफल ही रही है और अब मोदी सरकार के सामने भी जनता के लिए खुल चुके सरकारी विभागों की कमियों को छिपाने के लिए बने कानूनों को समाप्त करने या उनमें उचित संशोधन द्वारा कारगर बनाये जाने के आलावा और कोई विकल्प भी नहीं बचा है, अच्छा हो कि अब विगत की कमियों को सही किया जाये जिससे भविष्य में इस तरह से कोई सरकार अपने अधिकारों का मनमाना दुरूपयोग किसी के विशेष हित में न कर सके. हालाँकि कैग के द्वारा संदेह करने के बाद भी इस मामले पर कानूनी प्रक्रिया को कितना आगे बढ़ाया जा सकेगा यह तो आने वाला समय ही बताएगा पर आज सरकारों पर ज़िम्मेदारी से काम करने का दबाव तो बनने ही लगा है जो कि लोकतंत्र के लिए बहुत ही शुभ संकेत है. सरकारों के विवेकाधीन निर्णयों कि समीक्षा किस स्तर तक की जा सकती है यह भी विधायिका और न्यायपालिका के बीच में सदैव ही संवेदनशीलमुद्दा रहा है तो अब कानूनों में अपेक्षित सुधार कर देश की सरकारों के काम को और भी पारदर्शी बनाये जाने की आवश्यकता है.
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