मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शनिवार, 28 मार्च 2015

जमशेद कमिटी और भारतीय रेल

                                                                     रेलवे के सुधार के लिए उठाये जा रहे क़दमों के तहत बनाई गयी जमशेद कमिटी ने अपनी रिपोर्ट समय सीमा के अंदर ही रेल मंत्री को सौंप दी है जिसके लिए सुरेश प्रभु ने कमिटी को धन्यवाद दिया है. वैसे देखा जाये तो रेलवे के आर्थिक पुनरुद्धार के लिए यूपीए सरकार में पवन बंसल के रेल मंत्री बनाये जाने के बाद से ही कई प्रयोग किये जाने शुरू किये गए जिनका असर सकारात्मक रहने के कारण आज रेल मंत्रालय विभाग को दुरुस्त रखने के लिए नियमति तौर पर कवायद करने में लग चुका है. भारतीय रेल के कई मज़बूत पहलू भी हैं जिन पर विचार किये बिना किसी भी तरह से देश के लिए सही दिशा में रेलवे को चलाये रखने में सहायता नहीं मिलने वाली है. देश की राजनीति ने भी रेलवे के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाला है क्योंकि गठबंधन के दौर में एक समय ऐसा आ गया था कि सबसे बड़े सर्मथक दल द्वारा रेल मंत्रालय पाने के लिए सरकार चला रहे दल के मुखिया पर पूरा दबाव बनाया जाता था और मज़बूरी में सरकार को यह महत्वपूर्ण विभाग सहयोगियों को सौंपना पड़ता था.
                                                रेल के यात्री किराये को लेकर सदैव ही भ्रम की स्थिति बनी रहा करती है क्योंकि सामान्य परिचालन में जिस तरह से डीज़ल का ईंधन के रूप में आज भी रेलवे द्वारा बहुत उपयोग किया जाता है उसे देखते हुए इसे चरण बद्ध तरीके से तर्क संगत बनाये जाने की पहल की जा चुकी है जिसमें किराये के बारे में निर्धारण करने के लिए एक अलग प्राधिकरण बना दिया गया है जो बाजार के ईंधन के मूल्यों के अनुरूप रेल किराये को दुरुस्त रखने के लिए काम करना शुरू कर चुका है. जमशेद कमिटी ने यात्री गाड़ियों में जिस तरह से हर मेल / एक्सप्रेस में किराये को धीरे धीरे डायनामिक करने की सिफारिश की है वह भारतीय परिप्रेक्ष्य में कहीं से भी उचित नहीं कही जा सकती है क्योंकि रेल में यात्रा करने वाले लोग अपनी आवश्यकता के अनुसार सफर करते हैं यदि हर गाड़ी में यह सिस्टम लागू कर दिया गया तो आने वाले समय में रेलवे के किराये मद से होने वाली आय में वृद्धि के स्थान पर कमी ही नज़र आने वाली है क्योंकि जब रेल का किराया भी ५०० किमी तक की यात्रा के लिए लग्ज़री बसों से अधिक हो जायेगा तो उस स्थिति में कितने लोग रेल में सफर करना चाहेंगें यह सोचने का विषय है.
                                         रेलवे को सरकार अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी के अंतर्गत भी चलाया करती है जिससे उसमें हर स्तर पर लाभ हानि का गुणा भाग नहीं किया जा सकता है आज सुरेश प्रभु के प्रयासों को कोई भी गलत नहीं कह सकता है पर आर्थिक ढांचे को खोजने के चक्कर में कहीं ऐसा न हो कि रेलवे आम लोगों से दूर हो जाये जिससे रेलवे को तो अपने किराये में कमी देखने को मिलेगी ही साथ ही सड़कों पर अनावश्यक बोझ भी निश्चित तौर पर बढ़ जाने वाला है क्योंकि जब रेल आम लोगों के लिए पहली सुविधा से हटकर एक विकल्प के रूप में ही बचेगी तो लोग अन्य विकल्पों का उपयोग करने से नहीं चूकेंगें. भारतीय आम लोगों जिनको रेल यात्रा करनी ही पड़ती है यदि उनको केवल अन्य क्षेत्रों के उपभोक्ताओं की तरह ही माना जाने लगेगा तो वह दिन दूर नहीं है जब भारतीय रेलवे के पास भी विकसित देशों की तरह घाटे में लम्बी दूरी तय करने वाली रेलगाड़ियों के आलावा कुछ भी शेष नहीं रहेगा. देश के महानगरों के तीन सौ किमी के दायरे में रेलवे को बेहतर उपनगरीय सेवा के बारे में सोचना चाहिए जिससे वर्तमान में उपलब्ध पटरियों की संख्या में बढ़ोत्तरी कर पूरा किया जा सकता है जहाँ पर दो या तीन पटरियां मौजूद हैं पर वे दबाव में हैं तो वहां पर अविलम्ब रेल पटरियों की संख्या बढाकर यात्रियों को सुविधाएँ देकर आगे बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए.        
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