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सोमवार, 1 जून 2015

रेलवे रिस्ट्रक्चरिंग कमिटी- सुझाव और सिफारिशें

                                           भारतीय रेलवे के बेहतर सञ्चालन और प्रबंधन के लिए बिबेक देबरॉय की अध्यक्षता में बनाई गयी रेलवे रिस्ट्रक्चरिंग कमिटी की रिपोर्ट सरकार को १५ जून तक सौंपे जाने की पूरी संभावनाएं हैं क्योंकि सरकार ने भी इस कमिटी से तेज़ी से काम करते हुए अपनी राय देने के लिए कहा था. भारतीय रेल अपने आप में एक बहुत बड़ा संस्थान है और आने वाले समय में यह पूरी तरह से काम करता रहे इस बात की संभावनाएं टटोलने के लिए लगातार कोशिशें की जा रही हैं चूंकि रेलवे २४ घंटे काम करने वाला विभाग है तो इसके सफल सञ्चालन के लिए बहुत अधिक मानव शक्ति की आवश्यकता पड़ती है जिससे भी रेलवे के पास कर्मचारियों की पूरी फ़ौज़ ही रहा करती है क्योंकि इसके बिना सञ्चालन को सही स्तर पर नहीं रखा जा सकता है. पिछले कुछ दशकों से सरकारें इस बात पर भी काम कर रही हैं कि किसी भी तरह से रेलवे के संचालन को आर्थिक रूप से लाभकारी और अधिक कार्यकुशल बनाया जाए पर अभी तक जो भी निर्णय लिए गए हैं उनसे कोई बहुत असर पडता हुआ दिखाई नहीं देता है इसलिए एक बार मोदी सरकार ने भी इस तरफ प्रयास करने की कोशिश शुरू की है.
                                  अभी तक विभिन्न सूत्रों के माध्यम से जो खबरें सामने आ रही हैं उनमें कमिटी की तरफ से बहुत सरे ऐसे उपाय भी सुझाये गए हैं जिन पर अमल कर पाना किसी भी राजनैतिक व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन हो सकता है क्योंकि जिस तरह से पीएम मोदी की रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने की बातें लगातार की जा रही हैं उस स्थिति में इस कमिटी के सुझाव रेल युनियनों को कहीं भी अच्छे नहीं लगने वाले हैं क्योंकि रेलवे की सभी यूनियनें इस बात पर पूरी तरह से एकमत ही हैं कि हर स्तर पर निजीकरण का भरपूर विरोध किया जाये और रेलवे को निजी कम्पनियों के हाथों में देने की किसी भी शुरुवात का विरोध भी किया जाया. संभवतः इसी दबाव के चलते सत्ता समभलने के बाद रेलवे के निजीकरण की बातें करने वाले पीम ने भी पिछले वर्ष वाराणसी में रेलकर्मियों को सम्बोधित करते हुए यह कहा था कि रेलवे का निजीकरण नहीं किया जायेगा. यह अपने आप में एक ऐसा मुद्दा भी है जिसके बारे में सरकार आश्वस्त भी नहीं है क्योंकि विकसित देशों में भी रेलवे के निजीकरण से उसकी सेवाओं और आर्थिक स्थिति पर कोई बड़ा प्रभाव नहीं पड़ा है. 
                                 हमेशा की तरह ही किसी बड़े बदलाव का विरोध होने की संभावनाओं के बीच जिस तरह से कमिटी में कुछ जनविरोधी उपाय भी सुझाये गए हैं उनको मानना सरकार के वश में नहीं है जैसे अशक्तों के लिए विशेष छूट को समाप्त करना, रेलवे चिकित्सालयों को बंद करना, ठेकेदारों के हाथों में मेंटिनेंस निर्माण और परिचालन का ज़िम्मा दिए जाने की कुछ ऐसी बातें हैं जिन पर अमल कर पाना अपने आप में असंभव सा ही होने वाला है. निजी क्षेत्र को पूरी ट्रेन के परिचालन का ज़िम्मा सौंपने की बातें भी इन सुझावों में शामिल बताई जा रही हैं और यदि ऐसा है तो रेल यूनियनों की तरफ से इसका कड़ा प्रतिवाद किये जाने की पूरी संभावनाएं हैं. किसी बड़े परिवर्तन को एक दम से करने के स्थान पर अब सरकार क्रमबद्ध तरीके से इस काम को करने की तरफ बढ़ सकती है क्योंकि आज के समय में उसके पास इन मज़बूत रेल यूनियनों के विरोध को झेल पाने और किसी भी तरह की हड़ताल आदि से निपटने की कोई योजना नहीं है. भारतीय रेल जब कम आय के युग में भी बहुत सारे कल्याणकारी कामों को करती रही है तो कमिटी द्वारा आज के प्रतिस्पर्धी और बेहतर आर्थिक युग में उन्हें बंद करना कहाँ तक सही ठहराया जा सकता है ? रेलवे को लाभ कमाने वाली कम्पनी बनाते समय इस बात का ध्यान भी रखा जाना चाहिए कि वह देश को एक सूत्र में पिरोने का काम भी करती है और यह वह आयाम हैं जिस पर केवल आर्थिक पक्ष को हावी कर निर्णय नहीं लिया जा सकता है.      
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