मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

मंगलवार, 2 जून 2015

मोदी का संकेत या स्पष्टीकरण

                                                                      एक वर्ष पहले सत्ता में आई मोदी सरकार के लिए जितनी चुनौती अभी तक विपक्ष की तरफ से नहीं आई उससे अधिक तो सरकार में सहयोगी और भाजपा के वैचारिक मातृ संगठन आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठनों की तरफ से लगातार आती रही है. आम चुनावों में करारी हार के बाद जिस तरह से हताश विपक्ष अपनी शक्ति को समेटने की भरसक कोशिशें कर रहा था उनके बीच ही कई बार हिंदूवादी संगठनों तथा उनसे आये हुए आज मंत्री बने नेताओं के बयानों से सरकार के लिए लगातार ही असहज कर देने वाली परिस्थितियां उत्पन्न करती रही हैं. इन मसलों पर एक बार तो यहाँ तक भी खबर आई थी कि मोदी ने संघ को स्पष्ट रूप से बता दिया है कि यदि ऐसा ही माहौल बनाये रखने की कोशिशें की जाती रहीं तो आने वाले समय में वे त्यागपत्र भी दे सकते हैं तो उसके बाद बयानबाज़ी और जमीनी स्थितियों में कुछ दिनों के लिए कुछ परिवर्तन दिखाई दिया था पर मामला ठंडा होते ही निचले स्तर के कार्यकर्ताओं से लगाकर मंत्रियों तक ने एक बार फिर से अपना पुराना रुख अपनाना शुरू कर दिया है जिनसे निपटने के लिए आज भी मोदी के पास कोई ठोस उपाय नहीं है इसलिए ही वे अपने किसी भी साक्षात्कार में इस बात को अवश्य ही रेखांकित करने से नहीं चूकते हैं.
                                                निश्चित तौर पर पीएम के रूप में मोदी अपने को उसी उदारवादी राजनीति का एक और चेहरा साबित करने में लगे हुए हैं जिसके दम पर भारतीय प्रधानमंत्रियों की वैश्विक पहचान बनी हुई है कि वे ऐसे देश का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ पर दुनिया में सबसे अधिक विविधता होने के बाद भी अपेक्षाकृत सर्वाधिक शांति बनी रहती है. देश की इस साझा संस्कृति का लोहा आज भी पूरी दुनिया मानती है फिर भी सदैव से कुछ कट्टरपंथी लोग भी भारतीय समाज में सदैव से हर जगह पर पाये जाते हैं जिनके कारण सामाजिक सद्भाव बिगड़ा भी रहता है पर कोई न कोई भारतीयता का ऐसा सूत्र भी है जो इसे फिर से उसी जगह पर वापस भी ला देता है. निश्चित तौर पर समाज के उन कट्टरपंथी हिंदूवादी तत्वों को मोदी सरकार से भी उसी तरह से निराशा हो रही होगी जैसी उन्हें अटल सरकार के समय हुई थी क्योंकि एक धर्म को एक सामाजिक गतिविधि के साथ जीवन के हर पहलू में सम्मिलित किये हुए भारतीय समाज के लिए सरकार की जिस स्थिति की कल्पना संविधान में की गयी है ये सरकारें भी उसी पर चलने को मजबूर हैं. जिनके दिल में सदैव ही विद्वेष की आग जलती रहती है खुले मंचों से उनको भी सरकार की तरफ से कुछ ठोस हासिल नहीं होने वाला है.
                                        खुद पीएम की तरफ से इस बात पर बार बार ज़ोर दिए जाने के बाद भी उनके मातृ संगठन के लोग और यहाँ तक कि पार्टी और सरकार में शामिल लोग भी इसी तरह के बयान देने में आज भी लगे हुए हैं तो इस पूरे मामले के एक फिक्स मैच से अधिक कुछ भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि आज के समय में संघ, भाजपा और सरकार में किसी भी व्यक्ति में इतना दम नहीं दिखाई दे रहा है जो मोदी की मंशा के खिलाफ कुछ भी बोल या कर सके क्योंकि सरकार से लगाकर पार्टी पर उनकी पकड़ जितनी मज़बूत है वह कहीं से भी कम होती नहीं दिखाई दे रही है उस परिस्थिति में भी यदि कोई छुटभैय्ये टाइप के नेता अनर्गल बयान देने में लगे हुए हैं और पार्टी तथा मोदी उसकी अनदेखी भी कर रहे हैं तो यह उनकी एक सोची समझी रणनीति ही अधिक लगती है. बिहार, असोम और यूपी के अगले कुछ वर्षों में होने वाले चुनावों में इस तरह के सामाजिक बंटवारे से भाजपा को निश्चित तौर पर लाभ ही मिलने वाला है इसलिए उसके मंत्री और नेता इन राज्यों में ही इस तरह के भड़काने वाले बयान देने से नहीं चूकते हैं और वोटों के ध्रुवीकरण से होने वाले संभावित लाभ के चलते मोदी और शाह जैसे मज़बूत नेता भी चुप्पी लगाये रखते हैं और किसी बड़े मंच से इनकी केवल निंदा कर अपने कर्तव्य को पूरा मान लेते हैं.
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