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सोमवार, 8 जून 2015

भूमि अधिग्रहण बिल पर संभावनाएं

                                                    केंद्रीय कानून एवं न्याय मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा के एक बयान के बाद ऐसे संकेत मिलने शुरू हो चुके हैं कि भूमि अधिग्रहण बिल पर कोई बीच का रास्ता निकलने के बारे में मोदी सरकार ने गंभीरता से सोचना शुरू कर दिया है क्योंकि आने वाले समयमें बिहार चुनावों से पहले भाजपा और मोदी किसी भी दशा में इस मुद्दे को राजनैतिक मुद्दा बनने से रोकने की हर कोशिश करने वाले हैं जबकि राहुल गांधी की तरफ से इस मामले पर सीधे मोदी प्रत्यक्ष हमले करने से आज भाजपा को अपने कदम रोकने पर मजबूर होना पड़ रहा है क्योंकि इस विधेयक के कुछ प्रावधान ऐसे भी हैं जिनके कृषि और अन्य विशेषज्ञ भी देशहित में विरोध करने में लगे हैं. इस एक सूत्र को पकड़कर राहुल गांधी ने जिस तरह से देश के कई हिस्सों में मोदी सरकार पर करारे हमले किये हैं उससे मोदी की छवि किसान विरोधी बनाने के विपक्षी दलों के अभियान को कुछ गति और जनता की तरफ से समर्थन भी मिलने लगा है. सत्ता में बैठकर किसी मुद्दे पर सरकार का बचाव करना और विपक्ष में बैठकर सत्ता पक्ष को जनविरोधी साबित करना बहुत आसान हुआ करता है और यह काम भाजपा पिछली लोकसभा में सफलता पूर्वक कर भी चुकी है.
                                          आज लैंड बिल पर मोदी सरकार दोहरे पाटों के बीच में फंसी हुई दिखाई दे रही है क्योंकि उस पर इस मुद्दे पर काम न करने का आरोप उद्योग जगत की तरफ से लगाया जाना भी शुरू हो चूका है वहीं उस पर तीखे राजनैतिक हमले भी शुरू हो चुके हैं तो उस परिस्थिति में गौड़ा की तरफ से बीच का रास्ता निकालने की बात करना हर तरह से देशहित में ही है क्योंकि अभी तक सरकार के कड़े और अड़ियल रुख के कारण उसकी लगातार किरकिरी ही हो रही है और कांग्रेस इस मुद्दे पर सरकार को हर तरह से घेरने के लिए तैयार भी दिखती है उसी क्रम में कांग्रेस ने संयुक्त संसदीय समिति का बहिष्कार करने की घोषणा भी कर दी है. इस तरह से दोनों पक्षों के अपने अपने रुख पर अड़े रहने का कोई मतलब नहीं बनता है पर कांग्रेस भी अपने हाथ आये इस हथियार को आसानी से छोड़ने के मूड में कहीं से भी दिखाई नहीं दे रही है और इस मुद्दे पर संसद से लेकर राज्यों तक राहुल गांधी ने लगातार सरकार पर हमले करने की योजना भी बना रखी है और इस मुद्दे पर कांग्रेस और राहुल गांधी अपनी बात किसानों और आम लोगों तक पहुँचाने में सफल भी हुए हैं.
                                    अब यहाँ पर यह सवाल भी महत्वपूर्ण है कि सरकार आखिर क्यों इतना कड़ा रुख अपना कर बैठी हुई है जबकि उसे भी पता है कि इस मुद्दे पर उसकी राजनैतिक लोकप्रियता भी कम हो रही है ? आज स्थिति यहाँ तक है कि किसी भी भाजपाई सांसद/ विधायक या अन्य नेता के पास स्थानीय स्तर पर भी कांग्रेस के इस सवाल का कोई जवाब नहीं होता है कि सरकार इस ज़मीन को उद्योगपतियों के लिए सदैव के लिए क्यों लेना चाहती है ? संभवतः सरकार की तरफ से उस मुद्दे पर ही अपने कदम पीछे खींचने की शुरुवात की जा रही है और पांच साल में काम शुरु न होने पर भूमि वापस करने की बात पर सहमति भी बन सकती है क्योंकि यही वह मुद्दा है जिस पर विपक्ष सबसे अधिक हमलावर है और सरकार यही से अपना बचाव करने की शुरुवात करना चाहती है. संयुक्त संसदीय समिति में यदि विपक्ष ही नहीं हुआ तो सरकार के लिए यह एक और किरकिरी वाली बात होने वाली है कि वह अब तक के कमज़ोर विपक्ष को भी सदन और सदन के बाहर साधने में पूरी तरह से विफल ही रह गयी. यदि दोनों पक्षों की तरफ से कुछ सहमति की बात पर आगे बढ़ा जाये तो अंततः यह देश के लिए ही सुखद और बेहतर होने वाला है.    
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