मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

सोमवार, 13 जुलाई 2015

भारत-पाक वार्ता और आतंक

                            अपनी आज़ादी के समय से ही पाक ने भारत के साथ जिस तरह से एक विशेष एजेंडे के तहत काम करने की नीति बनाये रखी है विभिन्न तरह की समस्याएं सामने आने के बाद भी लगता है कि वह उनसे पीछे नहीं हटना चाहता है क्योंकि अपरोक्ष रूप से कश्मीर घाटी में अलगाववादियों की मदद करने से उसके इस्लामी जगत में बहुत सारे काम बिना प्रयासों के ही पूरे हो जाते हैं. पिछले छह दशकों में कभी भी ऐसा नहीं हुआ है कि पाक ने खुले मन से भारत के साथ वार्ता करने में दिलचस्पी दिखाई हो क्योंकि वहां के नेताओं के मन में चाहे जो भी हो पर सेना की सर्वोच्चता के चलते कोई भी नेता इस तरफ सही कदम उठाने में कभी भी सफल नहीं हो पाया है. उफ़ा में एक बार फिर से जिस तरह से कुछ मुद्दों पर सहमति बनाये जाने के बाद फिर से दोनों देशों की वार्ता पटरी पर लौटने की संभावनाएं देखी जा रही थीं वे लखवी के मुद्दे को लेकर एक बार फिर से संकट में पड़ सकती हैं क्योंकि भारत अपनी तरफ से मुंबई हमले के मुख्य आरोपी बनाये गए लखवी पर पाक में सही तरह से मामला नहीं चलाये जाने का आरोप सदैव ही लगाता रहता है और पाक इस आरोप से इंकार करता रहता है.
                                                  मोदी-शरीफ वार्ता में जिस तरह से २६/११ का मुद्दा एक बार फिर से प्रमुखता से उभरा और यह कहा गया कि दोनों देशों में लखवी की आवाज़ के नमूने पर सहमति हो गयी है वह भारत की सफलता लग रही थी पर दो दिन बाद ही इस मामले की पेचीदगियां भी एकदम से बढ़ ही गयी हैं क्योंकि पाक का यह कहना है कि उसके यहाँ किसी की आवाज़ का नमूना दिए जाने से सम्बंधित कोई कानून नहीं है इसलिए वह भारत को लखवी की आवाज़ का नमूना नहीं दे सकता है. इस घटना के बाद एक बार फिर से भारत पाक के बीच वही स्थिति बन गयी है जो उफ़ा से पहले थी अब इस मसले पर पाक की तरफ से जो कुछ भी कहा जा रहा है भारतीय पक्ष उस पर कितना भरोसा कर पायेगा यह तो समय ही बताएगा पर पाक एक इस रवैये से स्थिति परिवर्तन करने की मोदी सरकार की कोशिशों पर एक बार फिर से पानी फिरता नज़र आ रहा है. पहले से ही देश में विपक्ष समेत सहयोगी दलों के निशाने पर आई मोदी सरकार के लिए अब इस मामले में आगे बढ़ना मुश्किल ही होने वाला है हालाँकि इस तरह के विवाद से मोदी की पाक यात्रा और सार्क देशों की बैठक में अगले वर्ष पाक जाने के कार्यक्रम पर कोई अंतर नहीं पड़ने वाला है क्योंकि वह मुद्दा इन सबसे अलग ही है.
                                          पाक की भारत के साथ गंभीर वार्ता करने की कोई मंशा संभवतः कभी भी नहीं रहती है क्योंकि जिस भी परिस्थिति में किसी पाक पीएम ने कोई कोशिश शुरू की तो सेना ने उस पर पूरी तरह से पानी फेरने का ही काम किया है. सेना की तरफ से भारत का विरोध बड़े पैमाने पर किया जाता है तथा पाक के इस्लामिक चरमपंथियों का अड्डा बनने के बाद वहां सरकार का रुतबा बहुत कम हो चुका है तथा हर छोटे बड़े मुद्दे पर पाक सेना की बातें मानने को हर चुनी हुई सरकार मजबूर ही रहा करती है. ऐसे में ऐसी किसी भी कठपुतली सरकार के साथ भारत कब तक और किस सीमा तक बात करने की कोशिश कर सकता है जब पूरा मामला ही उसके हाथों में न हो ? परवेज़ मुशर्रफ के समय पाक सेना ने अपना स्वरुप दिखाया था जब अटल की लाहौर यात्रा के साथ ही उसने कारगिल में सेना को आतंकियों के वेश में भेजना शुरू कर दिया था और शरीफ को अपने पद से मजबूरी में हटना पड़ा था. भारत सरकार को भी अपनी कूटनीति के साथ ही पाक के साथ आगे की बातचीत पर बढ़ने के बारे में सोचना चाहिए क्योंकि पिछले बार भी राजग की सरकार के समय ही पाक ने १९७१ के बाद एक बार फिर से देश को युद्ध में झोंकने की पहली बार असफल कोशिश की थी.   
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