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रविवार, 23 अगस्त 2015

पाक का भविष्य और भारत

                                             अपने जन्म के समय से ही जिस तरह से पाक का एकमात्र प्रयास भारत के साथ संबंधों को ख़राब रखते हुए किसी भी समस्या का समाधान न निकालने की तरफ बढ़ना यही दिखाता है कि आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी पाक में ऐसे तत्व हावी हैं जो भारत के साथ मित्रता से अधिक शत्रुता पर अधिक विश्वास किया करते हैं. आज़ादी के समय विभिन्न कारणों और देश की रियासतों को भारत या पाक के साथ जाने का विकल्प देने का अवसर आज भी भारत के लिए कश्मीर के रूप में एक स्थायी सरदर्द बना हुआ है. कश्मीर के महाराजा हरी सिंह के अनिर्णय की स्थिति के चलते आज भी भारत पाक के बीच यह भूभाग विवाद का सबसे बड़ा विषय है जबकि बांग्लादेश के उदय और समर्पण किये गए पाकिस्तानी सैनिकों को छोड़ने को लेकर इंदिरा-भुट्टों के मध्य हुए शिमला समझौते के बाद भी पाक ने किसी भी तरह का कोई सबक नहीं सीखा और आज भी वह अपने कश्मीरी राग को गाने में कोई कसर नहीं छोड़ता है. आज कश्मीर पाक के लिए खुद ही बहुत बड़ी समस्या बन चुका है क्योंकि एक समय था जब खुद पाक सेना सीधे तौर पर अपने सैनिकों को घाटी में भेजा करती थी पर आज यह काम वह इस्लामी आतंकियों के माध्यम से कर रही है और इसके दुष्प्रभावों से बच पाना उसके लिए मुश्किल हो चुका है.
                                         पाक के लिए किसी भी वार्ता का मतलब केवल और केवल वैश्विक समुदाय को यह दिखाना भर होता है कि वह भी भारत के साथ अच्छे संबंधों का हिमायती है जबकि दोनों देशों को यह पता है कि इस तरह की किसी भी बातचीत के लिए पाक में चुनी हुई सरकार नहीं बल्कि सेना ही निर्णय लिया करती है. आज जिस तरह से पाक सेना में भी इस्लामी कटट्रपंथियों का प्रभाव बढ़ रहा है उससे वह एक सम्प्रभु राष्ट्र की नियमित सेना से अधिक जेहादी संगठन ही अधिक नज़र आने लगी है और एक समय भारत और अफगानिस्तान में अलगाववादियों का समर्थन करने वाली पाक सेना को भी खुद अपने इन्हीं आतंकियों के खिलाफ हथियार उठाने के लिए मजबूर होना पड़ रह है जो कि पाकिस्तान के कश्मीरी सपने पर एक बहुत बड़ा ग्रहण ही लगाता है. आतंकियों की तरफ से जिस तरह से कुछ भी कहने और करने से पहले सोचा नहीं जाता है और पाक सेना को उसी समस्या से दो-चार होना पड़ रहा है क्योंकि पाक में बैठे हुए लोगों को यही लगता है कि वे इस तरह की हरकतें करते हुए कभी न कभी कश्मीर को अपने कब्ज़े में करने में सफल हो जायेंगें. भारत जैसे किसी भी मज़बूत और समर्पित सैनिकों वाले देश की सेना से पार पाना कितना मुश्किल काम है यह पाक भारत के साथ हुए प्रत्यक्ष और परोक्ष युद्धों में आसानी से समझ चुका है.
                                        राजीव गांधी के समय में पाक से लगी सीमा पर जिस तरह से कांटेदार तार लगाने की प्रक्रिया की शुरुवात की गयी थी आज उसके अच्छे परिणाम देश के सामने हैं क्योंकि पहले पंजाब और फिर जम्मू-कश्मीर के साथ ही राजस्थान और गुजरात में भी सीमा पार से होने वाली घुसपैठ पर काफी हद तक लगाम लगाने में सफलता मिली है वह भी पाक के लिए किसी झटके से कम नहीं है. पाक भारत से तब तक सार्थक और प्रभावी बातचीत नहीं कर सकता है जब तक वहां बैठे हुए चरमपंथियों की विचारधारा से वह छुटकारा नहीं पाता है और इस बात की निकट भविष्य में कोई सम्भावना भी नहीं दिखाई दे रही है क्योंकि इस्लाम के प्रसार के नाम पर उसे इस्लामी देशों से जो धनराशि मिलती है वह केवल भारत में खर्च करने के नाम पर ही ली जाती है. पाक इस तरह के दलदल से केवल तभी निकल सकता है जब उसके यहाँ कट्टरपंथियों का प्रभाव कम हो जो कि आज की परिस्थिति में असंभव सा ही लगता है पाक में अधिकांश क्षेत्रों में जिस तरह से आज भी बच्चों को अलगाववादी बनाया जा रहा है उस आग को पिछले वर्ष पाक खुद पेशावर में  महसूस कर चुका है और संभवतः उसके बाद ही सेना की समझ में भी यह बात कुछ हद तक आई है कि इन लोगों से निपटने के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता भी है पर आज भी पाक सेना में बैठे हुए चरमपंथी इस पर पूरी लगाम के पक्ष में नहीं दिखाई देते हैं.
                                      पाक में भारत से बात करने का माहौल केवल एक परिस्थिति में ही बन सकता है जब वहां पर सक्रिय आतंकी तत्व खुद पाक के लिए एक बड़ा खतरा बन जाएँ और उसकी सेना को बड़े पैमाने पर खुली चुनौती देने की स्थिति में आ जाएँ. आज जिस तरह से पाक में आईएस के कुछ लोगों के सक्रिय होने ख़बरें सामने आ रही हैं तो यह भी संभव है कि आने वाले समय में आईएस जैसे संगठन का पाक के चरमपंथियों पर पूरा प्रभाव हो जाये और वे अपनी खिलाफत को पाक में भी लाने का प्रयास करें ? वह ऐसी स्थिति होगी जब पाक के सामने करो या मरो की स्थिति आ जाएगी. आज यदि आईएस को सीरिया और इराक के साथ अन्य देशों में भी सफलता मिल रही है तो उसके पीछे केवल इन देशों की सेनाओं में फैला हुआ भ्रम ही है कि वे किस तरफ रहकर सही कर पायेंगें और इस दुविधा में ही सेना की लड़ने की जुझारू शक्ति पर भी बुरा असर पड़ता है जिसका असर पिछले दो दशकों में इराकी सेना की हालत देख कर ही लगाया जा सकता है. क्या कोई यह कह सकता है कि यह वही सेना है जिसमें कुवैत पर कब्ज़ा कर अमेरिका की नाक में दम कर दिया था ? तब इराकी सेना सद्दाम हुसैन जैसे नेता के कब्ज़े में थी और पूरी तरह से सक्षम भी थी. कहीं पाक भी उस तरह की परिस्थिति में फंसकर ही अपने लिए बड़ी समस्या तो नहीं पैदा करने वाला है क्योंकि ऐसी परिस्थिति में आज नहीं तो कल उसकी सेना का मनोबल विभाजित होना ही है जिससे ही पाक के भविष्य के बारे में कुछ कहा जा सकेगा फिलहाल तो वह सेना और आतंकियों के दबाव में काम करते हुए पाक का लोकतान्त्रिक नेतृत्व अपने लिए समस्याओं का अम्बार लगाने में ही लगा हुआ है.       
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