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मंगलवार, 20 अक्तूबर 2015

कुपोषण, बजट और यथार्थ

                             दुनिया के सबसे कुपोषित बच्चों के देशों में शामिल भारत में चल रही कुपोषण से लड़ने वाली महत्वपूर्ण योजना के बजट में फरवरी माह में कटौती किये जाने के दुष्प्रभाव धरातल पर देने लगे हैं क्योंकि इस बात की स्वीकारोक्ति मोदी सरकार में इस परियोजना से जुड़े महत्वपूर्ण मंत्रालय को संभाल रही मेनका गांधी ने स्पष्ट रूप से अपनी चिंताएं सामने रखी हैं. आज देश का आंकड़ा यह है कि दुनिया के १० कुपोषित बच्चों में ४ भारत से होते हैं और यह तब है जब सरकार की तरफ से बच्चों को पुष्टाहार दिए जाने की मज़बूत और महत्वपूर्ण योजना चलायी जा रही है क्योंकि इससे पहले यह आंकड़े और भी भयावह थे. देश की विशाल जनसँख्या और बच्चों को पौष्टिक भोजन न मिलने के चलते ही आज यह समस्या बनी हुई है जिससे केवल सरकारी स्तर पर ही निपटा जा सकता है क्योंकि पूरे देश में किसी अन्य संस्था के माध्यम से दूर दराज़ के क्षेत्रों तक पहुँच नहीं बनायी जा सकती है.
                            यह भी सही है कि इस तरह की जन कल्याण से जुडी परियोजनाओं में भ्रष्टाचार की बहुत संभावनाएं होती हैं और अभी तक जिस तरह से कड़े प्रयासों के बाद भी इसे रोकने में सफलता नहीं मिल पायी है उससे यही लगता है कि आने वाले समय में इस दिशा में गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता भी पड़ने वाली है. यह परियोजना जहाँ बच्चों को कुपोषण से लड़ने में सहायता करती हैं वहीं इससे जुड़े हुए देश भर में लगभग २७ लाख स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को भी मानदेय मिलता है. यदि सरकार इस मद में बजट की कटौती करते हुए इसे अपने अंश के साथ राज्यों पर छोड़ देती हैं तो आने वाले समय में यह योजना किसी भी तरह से चल पाने लायक नहीं रह जाएगी क्योंकि कोई भी राज्य राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर देश में कुपोषण की इस स्थिति पर जवाबदेह नहीं है और यह जवाब हर जगह केवल भारत की मोदी सरकार को देना है. संभवतः इस तरह की आशंका के चलते ही मेनका गांधी ने इस समस्या की तरफ सभी का ध्यान आकृष्ट किया है क्योंकि इससे समाज में कुपोषण से लड़ने और रोज़गार के मोर्चे पर दोहरा नुकसान होने पूरी सम्भावना भी है.
                           अंतर्राष्ट्रीय दबाव और मानकों अनुसार चलने के कारण मोदी सरकार जिस तरह से समाज में धरातल पर बदलाव लाने वाली योजनाओं के बजट में कटौती करने में लगी हुई है उसका विकास के हर पहलू पर दुष्प्रभाव पड़ना ही है. अभी स्पष्ट बहुमत के चलते जिस तरह से सरकार इन सोशल सेक्टर्स की अनदेखी करने में लगी हुई है उसे यहाँ पर आने वाले समय में कदम पीछे खींचने ही पड़ेंगें क्योंकि सोशल सेक्टर के बचे हुए पैसों का अन्य क्षेत्रों में उपयोग करने का जो प्रयास किया जा रहा है वह लंबे समय में विपरीत प्रभाव भी दिखा सकता है. मोदी सरकार को विभिन्न क्षेत्रों के लिए अभी तक निर्धारित प्रक्रिया में हर तरह की खामी होने की बात मानने की आदत सी हो गयी है जबकि वह यह भूल जाती हैं कि लगभग २५ वर्ष पहले देश में शुरू हुए आर्थिक सुधारों के नायक मनमोहन सिंह पर भी इस तरह का अंतर्राष्ट्रीय दबाव रहा करता था पर उन्होंने देश की वास्तविक स्थिति को देखते हुए इन सोशल सेक्टर्स में वित्तीय आवंटन बढ़ाने का काम ही किया क्योंकि उनको भी पता था कि देश का निचला तबका जब तक मज़बूत नहीं होगा विकास को सही दिशा में नहीं ले जाया जा सकता है. दुनिया का सबसे बड़ा मनरेगा कार्यक्रम भी आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ पीएम के नेतृत्व में शुरू हुआ था इस लिए अब भी समय है कि मोदी सरकार इस दिशा में मेनका गांधी की चिंताओं पर विशेष ध्यान देना शुरू करे.
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