मेरी हर धड़कन भारत के लिए है...

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

मुनव्वर राणा और मोदी सरकार

                                   देश में सामाजिक भेदभाव के आधार पर निरंतर बढ़ रही असहिष्णुता के बीच जिस तरह से देश के विभिन्न हिस्सों से साहित्यकारों ने सरकार द्वारा दिए गए विभिन्न पुरुस्कारों को और सम्मानों को वापस लौटाने का क्रम शुरू किया था अब लगता है उस पर पीएमओ के स्तर से कुछ प्रयास शुरू किये गए हैं और आने वाले समय में संभव है कि खुद पीएम की तरफ से भी इस मामले पर कडा रुख अपनाया जाये. देश में सत्ता से अलग विचारधारा रखने वाले साहित्यकारों की जिस तरह से सुनियोजित हत्या करने पर भी केंद्र सरकार ने कोई कड़ा रुख नहीं अपनाया और खुले तौर पर संघ या भाजपा से जुड़े हुए लोगों द्वारा इन मामलों के लिए ज़िम्मेदार लोगों के बारे में कुछ भी नहीं कहा गया उससे भी यही समस्या सामने आती गयी और कलम के सहारे अपनी बात करने वाले साहित्यकारों को भी आगे बढ़कर सरकार पर इस तरह का दबाव बनाना पड़ा.
                          दादरी कांड के बाद जिस तरह से सभी गैर भाजपा दलों के निशाने पर अपने विवादित बयानों के चलते भाजपा और उसके नेता अचानक से आये उसके बाद ही सरकार और मोदी को इस बात की गंभीरता का एहसास हुआ क्योंकि जब तक समाज में सभी वर्गों की तरफ से सहिष्णुता की बात नहीं दिखाई देगी तब तक किसी मंच विशेष से इस तरह की बात करने को सही कैसे कहा जा सकता है ? यह सही है कि मामले के अति गंभीर होने के बाद और इसके अंतर्राष्ट्रीय मीडिया तक में जगह बनाने से जहाँ मोदी सरकार के लिए असहज स्थिति पैदा हुई वहीं देश के अंदर भी सरकार और मोदी की चुप्पी के लिए उनसे सवाल पूछे जाने लगे. एक लोकतान्त्रिक देश में यह सब बहुत ही सामान्य सी बात है क्योंकि जब भी समाज में किसी भी कारण से कोई समस्या आती है तो उसकी कानूनी तौर पर सरकार की जवाबदेही ही बनती है और सरकार चाहे किसी भी दल की क्यों न हो उसे उत्तर देना ही पड़ता है.
                          पीएमओ के स्तर से यदि साहित्य अकादमी पुरुस्कार धनराशि समेत लौटने वाले उर्दू के मशहूर शायर मुनव्वर राणा को बातचीत के लिए बुलाया जाता है तो इसके यही संकेत हैं कि पीएम खुद अंतर्राष्ट्रीय दबाव महसूस कर रहे हैं. इस मामले में मुनव्वर राणा का यह कहना कि उन्हें मोदी से मिलने में कोई दिक्कत नहीं है पर वे अकेले नहीं मिल सकते हैं जिस पर पीएमओ ने उन दस साहित्यकारों के नामों पर विचार भी शुरू कर दिया है जिनको इसके लिए बुलाया जा सकता है. पीएम के इस कदम से जहाँ पूरी दुनिया में भारत के खुले लोकतंत्र होने की पुष्टि होगी वहीं मोदी, संघ और भाजपा के लिए इस मोर्चे पर कुछ राहत भी हो सकती है. साहित्यकार नेता नहीं है पर उनके इस कदम ने जहाँ सरकार को अपनी चुप्पी वाली नीति से आगे बढ़ने को मजबूर होना पड़ रहा है वहीं संघ से जुड़े संगठनों को भी अपनी इस तरह की विघटनकारी नीति पर चलने से बचने के को बाध्य होना पड़ सकता है. फिलहाल पीएमओ से मिलने की तारिख तय होने और इस मुद्दे पर पीएम की राय देश दुनिया के सामने तक सभी को कुछ अच्छा होने की प्रतीक्षा करनी होगी।
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